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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 37
पहले कहा जा चुका है कि धृतराष्ट्र दिष्टवादी या भाग्यवादी दर्शन के मानने वाले थे। आचार्य मंखलि गोशाल ने नियतिवाद का विशेष प्रतिपादन किया था। यहाँ भी धृतराष्ट्र ने कुछ वैसा ही मत व्यक्त किया, “किसी बात के होने या न होने में (भावाभाव) में मनुष्य का हाथ नहीं, सब भाग्य के वश में है। ब्रह्मा सूत्र में बंधी कठपुतली की भाँति सबको नचा रहे हैं। धात्रा तु दिष्टस्य वशे किलायं तस्माद् वद त्वंश्रवणेधृतोऽहम्।।[1] इस विदुर नीति को सामान्य नीति ग्रन्थ नहीं समझना चाहिए। यह एक पूरा दार्शनिक मत था। इसे प्रज्ञावाद या प्रज्ञा का दर्शन कहा जा सकता है। यह प्रज्ञावाद उन अनेक मतवादों की काट था, जो भाग्य, निर्वेद, कर्मत्याग पर आश्रित समाज-विरोधी आदर्शों का प्रतिपादन करते थे। प्रज्ञावाद पुरुषार्थ, सत्कर्म, धर्म, गृहस्थ, प्रजापालन आदि आदर्शों पर आश्रित था, जिनसे जीवन का संवर्धन होता है, निराकरण नहीं। यदि इस दृष्टि से विदुरनीति या प्रजागर पर्व का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो आदि से अन्त तक प्रज्ञावाद के सैकड़ों सिद्धान्तों का प्रतिपादन इसमें मिलेगा। प्रज्ञावाद का इतना सुन्दर समन्वित विवेचन अन्यत्र कहीं भी भारतीय साहित्य में नहीं मिलता। प्राचीन भारत में प्रज्ञावाद एक प्रौढ़दर्शन के रूप में प्रचलित था। इसकी बहुत-सी चूलें अन्य दार्शनिक मतों के साथ विशेषतः बौद्धमत के साथ, भी मिली हुई थीं। बुद्ध स्वयं प्रज्ञावादी थे, किन्तु उनकी सारी विचारधारा ने श्रमणधर्म को आगे बढ़ाया, गृहस्थ धर्म को उसके सामने छोटा समझा, पर प्रज्ञावाद प्राचीन वैदिक परम्पराओं को लिये हुए था, जिसमें व्यक्ति की महिमा गृहस्थाश्रम की महिमा, पुरुषार्थ और उत्थान की महिमा का प्रतिपादन किया गया। प्रज्ञावाद अभावात्मक नहीं, जीवन का भावात्मक दृष्टिकोण था- भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मतिम्।[2] प्रज्ञावाद दर्शन की सबसे करारी टक्कर भाग्यवाद या नियतिवाद दर्शन से थी। इसे दिष्टवाद कहते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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