विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 29
3. जनमेजय का नाग-यज्ञ
गरुड़ का उपाख्यान प्राचीन वैदिक साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग था। वहीं से वह समृद्ध रूप से महाभारत के आरम्भ में सन्निविष्ट हो गया। आर्यगाथाशास्त्र में देशान्तरों तक गरुड़-उपाख्यान के सूत्र फैले हुए पाये जाते हैं। महाप्रतापी गरुड़ अग्नि की तरह जलते हुए अपने सुनहले पंखों से वायु को धुनते हुए स्वर्ग में जाकर अमृत प्राप्त करते हैं। वैदिक परिभाषा में सूर्य की संज्ञा गरुत्मा सुपर्ण थी और पुराणों के अनुसार गरुड़ भी सुपर्ण है।
जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में-एकः सुपर्णः स समुद्रमाविवेश-इस मंत्र की व्याख्या करते हुए कहा है-यह पुरुष समुद्र है, उसमें बसने वाला प्राण सुपर्ण है (पुरुषो वै समुद्रः प्राणो वै सुपर्णः) गरुड़ पक्षिराज या खगेन्द्र हैं और सूर्य की भी संज्ञा खगेन्द्र है। ‘ख’ अर्थात आकाश में चलने वाले जो ग्रह-उपग्रह हैं, उनमें प्रधान या इन्द्र सूर्य हैं। ज्योतिष में ग्रहों को खेट या खग कहते हैं। सूर्य के सभी उत्तरायण और दक्षिणायण ये दो पक्ष हैं, अथवा संवत्सर-रूपी काल के जो सूर्य का रूप है, दो षण्मास दो पक्ष के समान हैं।
इतिहास और पुराण का उद्देश्य वैदिक अभिप्रायों की विस्तार से व्याख्या प्रस्तुत करना था। ऐसा करने के लिए पुराणकारों ने उपाख्यानों का ही आश्रय लिया। अनेक उपाख्यानों के मूल में वैदिक अर्थबीज-रूप से छिपे हुए हैं। पुराणकारों की सर्वसम्मत शैली के अनुसार इन आख्यानों के क्रमशः प्रवर्द्धमान रूप भी हमें प्राप्त होते हैं। गरुड़ और लोमश देश और काल के प्रतीक हैं। इस प्रकरण में देवता और ऋषियों द्वारा आकाश-मार्ग को चीरकर उड़ने और गरजते हुए महाकाय गरुड़ की स्तुति एवं कद्रू द्वारा हरि-वाहन इन्द्र की स्तुति प्राचीन काव्यों की शक्ति से ओत-प्रोत है। इन्द्र का युग तो वैदिक काल की समाप्ति के साथ ही बीत चुका थाः
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋ. 10।103।1
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