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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 2
भूमिका
अतएव प्रजागर नामक महाभारत के इस पर्व की जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। यह हमें ऐसे लोक में ले जाता है, जहाँ मानव की महिमा किसी कल्पित देवता के रूप में नहीं, ठेठ मानव के रूप में ही दिखाई पड़ती है। ऋग्वेद के वसिष्ठ एवं दीर्घतमा ऋषियों से लेकर कृष्ण, वाल्मीकि, व्यास, जनक, याज्ञवल्क्य, विदुर, महावीर, चाणक्य, अशोक, कालिदास, शंकर आदि अनेक विचारक हमारे लिए सर्वथा मानव के रूप में ही मान्य हैं। उनमें मानवीय बुद्धि का जो विलक्षण प्रकर्ष देखा जाता है, वह मानवीय मस्तिष्क के उस रूप को प्रकट करता है, जिसका मस्तक आकाश को छूता हो, किन्तु जिसके चरण दृढ़ता से भूमि पर टिके हों। उद्योग पर्व का दूसरा प्रकरण सनत्सुजात ऋषि का उपदेश है। यह एक अध्यात्म दर्शन का अंग था। इसका प्रभाव गीता में भी पाया जाता है। इस दर्शन का सार इन्द्रियों के और मन के संयम द्वारा ब्रह्म प्राप्ति था। संसार के व्यवहारों से बचते हुए वैराग्य की ओर इसका झुकाव था। सम्भवतः उपनिषदों के आचार्य सनत्कुमार इस दर्शन के उपदेष्टा थे। उन्हें ही यहाँ सनत्सुजात कहा गया है। इसका मुख्य लक्ष्य अप्रमाद के द्वारा अमृतत्त्व की प्राप्ति था। शुद्ध ब्रह्मचर्य की साधना से मन, बुद्धि और आत्मा की जिस शक्ति की उपलब्धि सम्भव है, वही इनका साधना-मार्ग था। बुद्ध और महावीर ने भी अप्रमाद के इस सिद्धान्त को अपनाया है, जैसा कि धम्मपद के अप्पमादवग्ग एवं उत्तराध्ययन सूत्र के ऐसे ही स्थल से विदित होता है। ज्ञात होता है कि योग-साधना के द्वारा ब्रह्म-दर्शन इस मार्ग का ध्येय था। इस दर्शन के अन्तर्गत कुछ लोग भाँति-भाँति के रंगों की लेश्याओं का भी ध्यान करते थे, पर सनत्सुजात ने ब्रह्म-दर्शन के उस ढोंग को अच्छा नहीं कहा। इस प्रकरण की दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं। एक अक्षर ब्रह्म का सिद्धान्त, जो ऋग्वेद से चला आ रहा था और जिसका कालान्तर में बहुत विकास हुआ एवं दूसरा अमृतत्त्व का सिद्धान्त, जो ऋग्वेद के अमृत मृत्युवाद का ही अंग था। वह भी अत्यन्त प्राचीन दर्शन था, जिसका उल्लेख नासदीय सूक्त में हुआ है। एक प्रकार से समस्त सृष्टि एवं ब्रह्म की व्याख्या मृत एवं अमृत इन दो शब्दों में ढाल दी गई है। इस दर्शन के अन्तर्गत एक विशेष सिद्धान्त सत्य का था। सत्य का तात्पर्य पोथी-पत्रों से बाहर जीवन में साक्षात तत्त्व का दर्शन है, क्योंकि जीवन का निर्माण सत्य से हुआ है और सत्य पर ही वह टिका है। सत्य की संप्राप्ति कोरे कथन से नहीं होती, वह तो दम्भ के त्याग और अप्रमाद को आग्रहपूर्वक जीवन में उतारने से सम्भव होती है। इसलिए मनीषी ब्राह्मण कहते हैं कि ये तीनों सत्य के तीन मुख हैं। यह सनत्सुजात प्रकरण भी किसी प्राचीन उपनिषद या वैदिक चरण का बहता हुआ अंग था, जो उद्योग पर्व में यहाँ सुरक्षित रह गया है। भारत के अध्यात्म साहित्य में इसका महत्त्व इस बात से सूचित होता है कि शंकराचार्य ने इस पर भाष्य किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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