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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 2
भूमिका
धृतराष्ट्र और ययाति नियतिवाद को मानने वाले थे। विदुर और कृष्ण प्रज्ञादर्शन के अनुयायी थे। गीता में स्पष्ट ही कृष्ण ने प्रतिष्ठित प्रज्ञा या स्थिर बुद्धि-योग का विस्तार से वर्णन किया है। वैसे तो बुद्ध भी प्रज्ञा वादी थे, जिसके लिए पालि-साहित्य में पञ्ञा शब्द है, किन्तु संसार की सत्ता के विषय में बुद्ध ने प्रज्ञावाद से छटककर एक दूसरा ही मार्ग पकड़ा, जिसका मूलाधार श्रमण वादी परम्परा थी। इन तीन प्रकार के दार्शनिक मतों का शान्ति पर्व में कहीं अधिक विस्तार से वर्णन मिलेगा, जैसा भारतीय साहित्य में कहीं और उपलब्ध नहीं है। इसका कुछ संकेत हमने ‘भारत सावित्री’ के प्रथम खण्ड की भूमिका में किया है। पुस्तक के तीसरे खण्ड में शान्ति पर्व के ये गूढ़ प्रकरण ही व्याख्या के विषय बनेंगे। प्रज्ञादर्शन का ही कालान्तर में जो विकास हुआ, वह संस्कृत के नीति-साहित्य में पाया जाता है। प्रज्ञा दर्शन बड़ा विचित्र है। यह मानव के लिए अत्यन्त स्वाभाविक और निकट की वस्तु है। सरल शब्दों में, मनुष्य के जीवन में जो नित्य प्रति के काम काज में समझदारी का दृष्टिकोण है, वही प्रज्ञादर्शन का सार है। यह इतना स्वाभाविक है कि इसे मानने में किसी को अड़चन नहीं होती। प्रज्ञादर्शन की युक्तियां प्रत्येक मनुष्य के मन में पहले से ही बैठी हुई रहती हैं और उस भण्डार से वह उन्हें सहज ही प्राप्त कर लेता है। संसार में और चाहे जितने दर्शन हों, सबके मूल में मानवीय प्रज्ञा या बुद्धि की प्रतिष्ठा है। प्रज्ञादर्शन में बहुत पढ़ने-लिखने या पोथी-पत्रों आदि के जगड्वाल की आवश्यकता नहीं। और मत वादों के सैकड़ों पन्थ हो सकते हैं, किन्तु प्रज्ञावाद का तो एक ही मार्ग है, जिस पर निश्चयात्मक बुद्धि से मनुष्य चल सकता है। इस बारीक दृष्टि से जब प्रजागर पर्व पर विचार किया जाता है तो इन आठ अध्यायों में उस प्राचीन दर्शन के सैकड़ों सूत्र हाथ आ जाते हैं। प्रज्ञा के अनुयायी व्यक्ति के लिए संस्कृत भाषा में एक नए शब्द का प्रचलन हुआ। प्राज्ञ या प्रज्ञावान का ठीक पर्याय पण्डित शब्द है। प्रज्ञा, प्रञ्ञ-पण्णा, पण्डा ये शब्द समानार्थक हैं। ‘स वै पण्डित उच्यते, स वै पण्डित उच्यते’ इस प्रकार के कितने ही सूत्रों में पण्डित की परिभाषा पाई जाती है। विदुर नीति और गीता दोनों में ही इस प्रकार के वर्णन हैं। गांव-गांव में, घर-घर में और जन-जन में फैले हुए व्यवहारों को छानकर एवं उसमें बुद्धि की भावना देकर जो रसायन तैयार हुआ, वही प्रज्ञादर्शन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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