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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 257-273
37. रामोपाख्यान
तब उसने मरण निश्चित जानकर अपने लिए स्वयं तिलांजलि दे डाली और दुःखी मन से रावण के पीछे हो लिया। रत्नों से चित्रित शरीर वाले मृग के रूप में मारीच सीता को लुभाकर राम को दूर हर ले गया। दूर निकल जाने पर राम ने उसे मायावी निशिचर के रूप में पहचान लिया और अमोद्य शर से मार डाला। मरते हुए उसने ‘हा सीता, हा लक्ष्मण’ यह पुकार लगाई। सुनकर सीता उसी ओर दौड़ी जिस ओर से शब्द आया था। लक्ष्मण ने उन्हें समझाना चाहा, किन्तु उन्होंने स्त्री स्वभाव से शुद्ध चरित्र अपने देवर पर शंका की और परुष वचन कहने लगीं, ‘‘हे मूढ़, तुम जो हृदय से चाहते हो, वह नहीं होगा, चाहे मुझे शस्त्र लेकर आत्मघात करना पड़े या गिरिश्रृंग से गिरकर या अग्नि में जीवन का अन्त करना पड़े। राम को छोड़कर मैं कभी तुम्हें न भजूंगी।’’ सद्वृत्त लक्ष्मण ने ऐसे वचन सुनकर कान मूँद लिये और चुपचाप जिधर राम थे, उधर चल दिये। इसी बीच में भस्म से ढकी आग की तरह यति के भेष में रावण वहाँ आया। सीता ने फलमूल से उसका स्वागत करना चाहा, पर उसने अपना असली रूप प्रकट करते हुए सीता से अपनी भार्या बनने और लंका चलने को कहा। सीता ने उसका प्रतिषेध और भर्त्सना की, किन्तु वह उनके केश पकड़कर आकाश-मार्ग से ले चला। तब पर्वत पर निवास करने वाले जटायु ने रावण का मार्ग रोककर कहा, ‘‘यदि तुम सीता को नहीं छोड़ते तो जीवित आगे नहीं बढ़ सकते। रावण ने खड्ग से उसके पंख काट डाले और सीता को लेकर चला। सीता जहाँ कोई आश्रम देखतीं वहीं अपना आभूषण फेंकती जाती थीं। उधर लौटते हुए राम ने लक्ष्मण को देखकर कहा, ‘‘भाई, राक्षसों भरे हुए इस वन में सीता को छोड़कर कहाँ आ गए?’’ लक्ष्मण ने सीता के वे अन्तिम वचन सुनाए। राम के हृदय में बड़ा अन्तर्दाह हुआ। वे शीघ्र आश्रम की ओर चले। मार्ग में उन्होंने जटायु को क्षत-विक्षत देखा और उससे सब हाल जाना। जटायु ने मरते हुए भी अपने कांपते हुए सिर से दक्षिण की ओर संकेत किया, जिसका अर्थ राम ने समझ लिया। तब आश्रम में लौटकर राम ने उसे अस्त-वस्त पाया। दोनों भाई दण्डक वन में दक्षिण दिशा की ओर बढे़। वहाँ उन्हें घोर दर्शन कबन्ध मिला, जिसके वक्षस्थल में आखें और उदर में बड़ा-सा मुख था। उसने लक्ष्मण को पकड़ लिया और लक्ष्मण राम को पुकारते हुए विलाप करने लगे, ‘‘हे तात, आपका राज्यभ्रंश, पिता का मरण, वैदेही का हरण और मुझ पर यह संकट-हम लोगों के कष्टों का अन्त नहीं है।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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