विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
इसका प्रभाव यह हुआ कि जो कुरुक्षेत्र अति पवित्र था, वह आर्यों के लिए वर्जित समझा जाने लगा। केवल तीर्थयात्रा के निमित्त मुँह छूने भर के लिए लोग अब भी कुरुक्षेत्र में जाते थे, किन्तु मन में विश्वास यह थाः
यहाँ स्पष्ट रूप में उन रात्रिकालीन मधुगोष्ठियों (ग्रीक ड्रिंकिंग रेवेल्री) की ओर संकेत किया गया है, तो उस युग के यूनानी जीवन की विशेषता थीं और जिनमें कुछ रहस्य-पूजाओं और नृत्यों के साथ मधु-पान करते हुए लोग पशुवत व्यवहार करने लगते थे। दिन में भले मानसों जैसा जो प्रकट आचार था वह रात में बिलकुल बदल जाता था। इस पृष्ठभूमि में युधिष्ठिर ने भी यही निश्चय किया कि केवल एक दिन वहाँ रहें। कुरुक्षेत्र पूर्वप्राप्त गौरवशाली महिमा का स्मरण मात्र द्वितीय शती ई. पू. के तीर्थयात्रा-प्रकरणों में बच गया था। यहीं पर कभी नहुष के पुत्र शर्याति ने रत्नमयी दक्षिणाओं के साथ अनेक ऋतुओं से यजन किया था। यहीं यमुना के तट पर प्लक्षावतरण तीर्थ था। इसी प्रसंग में लोमश ने सरस्वती, ओघवती, विनशन, चमसोद्भेद, विष्णुपद और विपाशा इन भौगोलिक संज्ञाओं का उल्लेख किया है। चमसोद्भेद् और विनशन के प्रसंग में जहाँ सरस्वती उत्तरीय राजस्थान की मरुभूमि में खो जाती है, लोमश की दृष्टि समुद्र के साथ सिन्धु के संगम तक और सौराष्ट्र के प्रभास-पट्टन तक चली जाती है। स्पष्ट ही ये पश्चिमी दिशा में तीर्थयात्रा के अन्ति दो बिन्दु थे। सरस्वती के मरुभूमि में लोप हो जाने के बाद फिर तीर्थों का सिलसिला समाप्त हो जाता था, केवल सिन्धु-सागर-संगम और प्रभास ही पश्चिमी सीमान्त में दिखाई पड़ते थे। यह भी कहा गया है कि सिन्धु के महातीर्थ में लोपामुद्रा ने अगस्त्य को अपना पति वरा था। वस्तुतः अगस्त्य के नाम से संयुक्त अनेक तीर्थों की श्रृंखला में यह भी एक कड़ी थी। कुरुक्षेत्र के ही उत्तर-पूर्व में विष्णुपद तीर्थ था, जिसका उल्लेख रामायण में भी इसी प्रदेश में पाया जाता हैं। वहीं विपाशा या व्यास का वह हिस्सा होना चाहिए, जो कांगड़ा प्रदेश में आता है। विपाशा से आगे ठीक ही कश्मीर मण्डल का उल्लेख हुआ है, जो इस ओर भारत का प्रसिद्ध अन्तिम जनपद था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज