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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
यहीं अंग की राजधानी चम्पा से तीन योजन दूर ऋष्यश्रृंग का आश्रम था। वर्तमान भागलपुर से 28 मील पश्चिम ऋषिकुंड नामक स्थान में यह आश्रम बताया जाता है, जहाँ प्रति तीसरे वर्ष ऋष्यश्रृंग के नाम से मेला लगता है। ऋष्यश्रृंग की कथा बौद्ध जातकों में भी रोजनात्मक ढंग से कही गई है। काश्यप-गोत्रीय विभाण्डक ऋषि के पुत्र ऋष्यश्रृंग का जन्म वन में घूमती हुई उर्वशी अप्सरा से हुआ। कथा है कि उर्वशी को देखकर ऋषि स्खलित हुए और उनका तेज सरोवर में पानी पीती हुई मृगी के गर्भ में पहुँचकर पुत्र-रूप में उत्पन्न हो गया। स्पष्ट शब्द में कहें तो यह कहानी गढ़ने का हथकण्डा मात्र है। वस्तुतः जो ऋषि जंगल में आश्रम बनाकर एकान्त-वास करते और उस अवस्था में किसी सुन्दरी के साथ अपने संयम से हाथ धो बैठते थे, उनके लिए किसी अप्सरा की या उसी से मिलती-जुलती कल्पना प्राचीन कहानी-कला की मान्य पद्धति हो गई थी। घर-गृहस्थी के बरतन-भाड़ों से बिल्कुल अलग रहने वाले विभाण्डक मुनि ने भी इसी प्रकार किसी वनचारिणी स्त्री को हरा किया, जिसके फलस्वरूप ऋष्यश्रृंग का जन्म हुआ। वन में पोषित ऋषि-पुत्र ने कभी स्त्री का दर्शन नहीं किया था। स्त्री क्या है, इससे वह अनभिज्ञ रहे। उधर अंग देश के राजा लोमपाद के राज्य में वृष्टि नहीं हुई। मंत्र-कोविद सचिवों ने कहा कि यदि मुनिपुत्र ऋष्यश्रृंग आपके राज्य में आ जायँ तो वृष्टि होगी। यह सुनकर राजा ने वारवनिताओं को बुलाकर यह काम सौंपा। वे बजरे पर तैरता हुआ सुन्दर आश्रम बनाकर काश्यपाश्रम के समीप पहुँचीं। उनमें से एक सुन्दर युवती ने काश्यप की अनुपस्थिति में पहुँचकर ऋष्यश्रृंग से कहा, ‘‘हे मुनि, आपके यहाँ तपस्वी तो कुशल से हैं? फल-मूल पर्याप्त होते हैं? आपका मन आश्रम में लगता है? तापसों का ताप भली प्रकार होता है? आपके पिता आपसे प्रसन्न हैं? आपका स्वाध्याय तो सकुशल है?’’ ऋष्यश्रृंग रूप से कौंधती हुई उस विद्युत को देखकर कुछ न समझ सके कि यह क्या है। उन्होंने कहा, ‘‘हे ब्रह्मचारिन! आपके मुख की कैसी अपूर्व ज्योति है! आपका आश्रम कहाँ है? आपका मैं अभिवादन करता हूँ और आपके लिए पाद्य एवं कुशासन अर्पित करता हूँ।’’ उस युवती ने कहा, ‘‘मेरा आश्रम इस पर्वत के उस ओर तीन योजन पर है। हम किसी का अभिवादन नहीं लेतीं, यह हमारा स्वधर्म है और न किसी से पाद्य ग्रहण करती हैं।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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