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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 39
इसके बाद महाभारत में कैरात पर्व संज्ञक प्रकरण है। जनमेजय ने विस्तार से अर्जुन की अस्त्र-प्राप्ति की कथा जाननी चाही। उसी के फलस्वरूप यह बड़ा प्रकरण मूल ठाट के बाद किसी समय जोड़ा गया। वैशम्पायन ने जनमेजय से कहा, “यह महत कथा मैं तुम्हें सुनाता हूँ।” युधिष्ठिर की आज्ञा से जब अर्जुन हिमालय पर पहुँचे और वहाँ पर तप करने लगे तब उनके घोर तप से प्रभावित होकर ऋषियों ने शंकर को सूचना दी, “हे देव, यह पार्थ क्यों उग्र तप कर रहा है? हम उसके तप से जलने लगे हैं। उसे कृपया निवृत्त कीजिए।” शिव जी ने उत्तर दिया, “तुम जाओ, मैं उसके मन का पता लगाता हूँ। जो उसकी इच्छा होगी, पूरी करूंगा।” यह कह शिव जी किरात के वेश में अर्जुन के समीप आये। उन्होंने देखा कि एक दितिपुत्र मूक वराह रूप में अर्जुन की ओर ताक रहा है और उसे मारना चाहता है। अर्जुन ने उसे देखकर कहा, “रे दुष्ट, तू मुझ निष्पाप को मारना चाहता है, मैं तुम्हें ही यमलोक भेजता हूँ।” अर्जुन को प्रहार करते देख किरात ने उसे रोका, पर अर्जुन ने उसकी बात अनसुनी करके निशाने पर अपना बाण चला दिया। इधर किरात ने भी अपने बाण से उस वराह को बींध डाला। अर्जुन ने डपटकर किरात से कहा, “एक ही निशाने पर दूसरे का बाण चलाना शिकार का नियम नहीं। मैं तुझे अभी यमलोक भेजता हूँ।” किरात ने मृदुता से उत्तर दिया‚ ‘यह तो मेरा ही लक्ष्य था और मेरे ही प्रहार से मरा है। यदि तुझमें इतना दर्प है‚ तो तू भी बाण चला।’’ इस प्रकार बात बढ़ गई और वे दोनों एक–दूसरे से गुंथ गए। अन्त में अर्जुन की शक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने वर मांगने के लिए कहा। अर्जुन ने कहा‚ ‘भगवन‚ यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे दिव्य पाशुपत–अस्त्र दीजिए‚ जो अत्यन्त घोर है और जिसे ब्रह्मशिर कहते हैं।’’ शिव वह पाशुपत-अस्त्र एवं उसके धारण, मोक्ष और संहार का सब रहस्य अर्जुन को सिखाकर चले गए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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