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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 34
“इसलिए बुद्धिमान को धर्म और अर्थ की ओर से प्रमाद न करना चाहिए। उनके होने से ही काम की पूर्ति होती है। मेघ और समुद्र जैसे एक-दूसरे के जनक हैं, ऐसे ही धर्म से अर्थ और अर्थ से धर्म होता है। जैसे बहेलिया पक्षियों को मारता है‚ वैसे ही अधर्म इन तीनों का नाश करता है। आपने तो धर्म को बहुत-कुछ जाना बूझा है। अर्थ से ही धर्म की सेवा हो सकती है, किन्तु अर्थ भिक्षा या नपुंसकता से प्राप्त नहीं हो सकता। आप तो स्वयं यांचा का निषेद किया करते थे। क्षत्रिय के लिए भिक्षा का विधान नहीं, तेज से ही अर्थ-सिद्धि के लिए आप यत्न करें। हे राजन, उठिए, सोचिए-समझिए और सनातन काल से प्राप्त धर्मों का पालन कीजिए। प्रजा-पालन ही आपके लिए ब्रह्म का बनाया हुआ सनातन धर्म है। उससे विचलित होकर आपकी लोक में हंसी होगी। स्वधर्म से चलित होना मनुष्य के लिए श्लाघनीय नहीं। किस क्रूर कर्म के चक्कर में आप पड़ गए हैं? “मेरा मन बड़ा दुःखी है। क्षत्रिय के बलवान हृदय की उपासना करो। इस ढीले मन का परित्याग करो। पौरुष का आश्रम लेकर वृषभ के समान धुरे का उद्वहन करो। जो कोरा धर्मवादी है, वह कभी पृथ्वी, सम्पत्ति या राज्यश्री को नहीं पा सकता। शत्रु के विनाश के लिए कपट का आश्रय भी लेना पड़ता तो भी कर्तव्य है। कहा जाता है कि देवताओं ने असुरों को युद्ध में छल-छन्द से ही पछाड़ा था। युद्ध में अर्जुन के समान योद्धा कौन है? और मेरे समान गदाधारी कौन है? हे राजन, युद्ध के लिए सत्त्व चाहिए, बहुत साज-समान नहीं। अधिक ऊंचे अर्थ के लिए पहले उपार्जित अर्थ का त्याग करना उचित है। क्या खेती के लिए बीज को भूमि में नहीं डालते? जिससे उदय का लाभ न हो, वह अर्थ अनर्थ के समान है। बड़े धर्म की प्राप्ति के लिए छोटे धर्म का त्यागना बुद्धिमानी है। हे राजन,? विधिपूर्वक पृथ्वी का पालन पुराणतप है, ऐसा मैंने सुना है। लोग कह सकते हैं कि यदि धर्मराज युधिष्ठिर पर भी ऐसा बिपत पड़ सकती है, तो प्रभा सूर्य को और कान्ति चन्द्रमा को भी छोड़ जा सकती है। भूमिपालन में राजा को पाप भी करना पड़े, तो वह उस रक्षा के पुण्य से मिट जाता है। “यह सब सोचकर मेरा तो यही विचार है कि आप शीघ्र ही सब सामग्री के साथ रथ सजाकर हस्तिनापुर पर चढ़ाई कर दें, और अपने तेज से शत्रुओं का मर्दन करके राज्यलक्ष्मी प्राप्त कर लें। कौन है जो गाण्डीव से छूटे हुए फुंकारते बाणों के सामने ठहर सकेगा? युद्ध में लपलपाती हुई मेरी गदा के सामने रुकने वाला योद्धा, हाथी या घोड़ा अभी तक नहीं जन्मा।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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