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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 35
भीम के ऐसे तीखे वचन सुनकर युधिष्ठिर विचलित न हुए। वस्तुतः महाभारत के इस प्रकरण में वेदव्यास ने अर्थ, धर्म और काम इस त्रिवर्ग के आपेक्षित महत्त्व का मूल्यांकन किया है। उसमें उस दृष्टिकोण का प्रतिपादन है, जिसके अनुसार अर्थशास्त्रों के प्राचीन अर्थ को ही त्रिवर्ग का सार मानते थे। कौटिलीय अर्थशास्त्र के प्रारम्भ में भी यही दृष्टिकोण पाया जाता है। अर्वाचीन अर्थशास्त्रियों की विचारधारा भी अर्थ की महत्ता के विषय में इसी दृष्टिकोण के समानान्तर चलती है। युधिष्ठिर ने कहा, “हे भीम, तुम्हारा कहना सच है। तुमने अपने वाग्बाणों से जो मुझे बींधा है, उसका मैं कुछ बुरा नहीं मानता। मेरी ही अनीति से यह व्यसन तुम लोगों पर पड़ा है। मैंने सोचा था, पांसों के बल से धृतराष्ट्र के पुत्रों का राष्ट्र और राज्य हर लूंगा। उल्टे मुझे ही शकुनि ने मात दे दी। उसने माया का आश्रय लिया और मैं अमायिक बना रहा। हे भीमसेन, ऐसी भवितव्यता थी। हम लोग जिस गड्ढे में गिर गए थे, उससे द्रौपदी ने हमारी रक्षा की। तुम्हें ज्ञात है कि उसके बाद भी दुर्योधन ने एक दांव खेलने के लिए मुझे फिर ललकारा। उसके फलस्वरूप हमें बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास करना है। हम सब उस शर्त से बन्धे हैं। राज्य के लिए उसका त्याग उचित नहीं, अतएव सुखोदय के लिए काल की प्रतीक्षा करो, जैसे बीज बोने वाला फसल पकने की बाट देखता है। मेरी प्रतीज्ञा को तुम अविचल और सत्य जानो। अमृत और जीवन से भी बढ़कर मैं धर्म को मानता हूँ। राज्य, पुत्र, यश और धन सत्य के एक अंश के बराबर भी नहीं हैं।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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