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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 52-59
धृतराष्ट्र, दुर्योधन और विदुर के इस वार्तालाप की पृष्ठभूमि में युधिष्ठिर और शकुनि का वह द्यूत भी चल रहा था। “हे युधिष्ठिर, पाण्डवों का बहुत-सा धन हार चुके, अब और कुछ हो तो बोलो।” शकुनि का यह वचन सुनकर युधिष्ठिर ने फिर कहा, “मेरा धन असंख्य है। सिंधुनद के पूर्व की प्रजाओं का जितना धन है, वह मेरा ही है। उसे मैं दांव पर रखता हूँ। ब्राह्मण राज्यधिकारी और ब्राह्मणों का धन इन दो के अतिरिक्त जितने पुर और जनपद हैं, वह सब मेरा धन है, उसे दांव पर रखता हूँ।” इतना सुनते ही शकुनि ने फिर पांसा फेंकते हुए कहा, “वह जीता!” उसे हारकर युधिष्ठिर फिर सब राजपुत्रों को एवं नकुल और सहदेव को भी दांव पर हार गए। तब शकुनि ने चुटकी ली, “तुम्हारे प्रिय माद्री-पुत्रों को तो मैंने जीत लिया। ज्ञात होता है कि भीमसेन और अर्जुन तुम्हें अधिक प्यारे हैं।” आहत होकर युधिष्ठिर ने कहा, “अरे मूर्ख, तू हम सब भाइयों के मन में फूट डालता है।” शकुनि ने उत्तर दिया, “द्यूत खेलने वाले जो प्रलाप कर जाते हैं, उन पर स्वपनों में भी क्या कोई ध्यान देता है? हे युधिष्ठिर, आप सचमुच जेठे और बड़े हैं। नमस्कार है आपको। जो एक बार नशे में चूर हो गया, वह गड्ढ़े में गिरता ही है। जो प्रमत्त हो गया, वह नाश को प्राप्त होता ही है।” अब युधिष्ठिर की विवेक-बुद्धि क्षीण हो चुकी थी। उन्होंने अर्जुन और भीम को भी दांव पर रख दिया और हार गए। शकुनि ने ललकारा, “अब कहो, युधिष्ठिर, दांव पर रखने के लिए क्या धन है?” युधिष्ठिर ने निर्बुद्धि होकर कहा, “सब भाइयों का प्यारा मैं ही अब बचा हूँ। अपने को ही मैं दांव पर रखता हूँ।” इतना कहना था कि शकुनि ने पांसा फेंका और कहा, “वह जीता!” और ऊपर से व्यंग्य किया, “हे युधिष्ठिर, यह तुमने पाप किया, जो धन अवशिष्ट रहने पर भी अपने आपको हार गए! अभी तुम्हारी प्यारी द्रौपदी अपराजित बची है! उसे दांव पर रखकर फिर अपने आपको स्वतंत्र करो।” इस समय तक युधिष्ठिर पक्के जुआरी के समान अपने विवेक को बिल्कुल खो चुके थे। शकुनि की बात सुनकर विचार करना तो दूर, उन्होंने द्रौपदी को भी दांव पर रख दिया। इतना सुनते ही सभा के सब वृद्ध सदस्य उन्हें धिक्कारने लगे। सारी सभा क्षुभित हो गई। भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य को पसीना हो आया। विदुर प्राण-शून्य की तरह सिर पकड़कर नीचा मुंह कर सोचने लगे। केवल धृतराष्ट्र प्रसन्न होकर बार-बार पूछने लगे, “क्या जीत लिया? क्या जीत लिया?” वह अपनी मुद्रा छिपा न सकेः किंचितं किंचितमिति आकारं नाभ्यारक्षत।।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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