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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 52-59
विदुर के ये वचन दुर्योधन न सह सका। उसने कहा, “हे विदुर, तुम सदा छिपे हुए पाण्डवों की प्रशंसा और हमारी निन्दा करते हो। जहाँ तुम्हारा स्नेह है, हम जानते हैं। क्या तुम हमें अबोध समझते हो? तुम्हारी वाणी बता रही है कि तुम्हारा मन कहाँ है? तुम गोद में बैठे हुए नाग हो। बिलाव की तरह अपने पोषक की ही हिंसा करते हो। स्वामि-द्रोह से बढ़कर पाप नहीं। शत्रुओं को जीतकर हमने महाफल प्राप्त किया है। हमसे कड़वी बातें मत कहो। हे विदुर, अपने यश की रक्षा करो। हमें छोड़कर दूसरे के हित में मत लगो। मैं ही सब कुछ कराने वाला हूं, क्यों तुम ऐसा समझते हो? मेरे लिए क्या हित है, यह मैं तुमसे कब पूछता हूं? तुम्हारा भला हो, कृपा करके हम सहिष्णुओं को अपने वाग्बाणों से मत वींधो। मेरा तो एक ही शिक्षक है, दूसरा नहीं; उसी ने गर्भ में सोते हुए ही मुझे शिक्षा दे दी थी, वही मुझे जैसा चलाता है, वैसा करता हूँ। पानी जैसे ढाल की ओर बहता है, वैसे ही मैं भी अपने स्वभाव की ओर जाता हूँ। जो बलपूर्वक किसी को सिखाता है, वह अपना सिर चट्टान से टकराता है या सांप को दूध पिलाता है। उससे केवल मनमुटाव बढ़ता है। हे विदुर, जो भुस में आग लगाकर स्वयं वहाँ से भाग नहीं जाता, उसकी राख का भी पता नहीं लगता। कहा है, जो दूसरे का हितु और अपना बैरी है, ऐसे अहितकारी मनुष्य को पास में न रहने दो। इसलिए जहाँ चाहो, चले जाओ। जो असती स्त्री है, उसे चाहे जितना रिझाओ, वह भाग ही जाती है।” इन विषबुझे वचनों से विदुर के मन को अत्यधिक संताप हुआ, फिर भी उन्होंने अपने को सम्हालते हुए कहा, “हे धृतराष्ट्र, इन बातों से व्यथित होकर यदि मैं तुम्हें छोड़ दूं, तो मेरी मित्रता हलकी कही जायगी। राजाओं के चित्त तो चंचल होते हैं। वे शांति की बात कहकर मूसलों से मारते हैं। हे दुर्योधन, तुम अपने को पण्डित और मुझको मूर्ख समझते हो। मूर्ख वह है, जो अपने ही आदमी को मित्र बनाकर पीछे उस पर दोष लगाता है। मंद बुद्धि व्यक्ति को सुमार्ग पर ले जाना वैसा ही कठिन है, जैसा श्रोत्रिय के घर की चंचला स्त्री को संयम में रखना। हित और अनहित के कार्यों में यदि चापलूसी की बात ही सुनना चाहते हो, तो किसी मूढ़ से जाकर सलाह करो। जो पुरुष प्रिय-अप्रिय की भावना को छोड़कर हितकारी अप्रिय बात भी कह सकता है, वही राजा का सच्चा सहायक है। सज्जनों के लिए एक ऐसा पेय पदार्थ है, जो कड़वा, तीखा, गरम, यशनाशक, रूखा, और दुर्गन्धिपूर्ण है। उसका नाम क्रोध है। असज्जन उसे नहीं पी सकते। हे महाराज, उस क्रोध को पचाकर शांति बनो। पण्डित वह है जो सर्प की तरह नेत्रों से ज्वाला उगलने वाले क्रोधी व्यक्ति से स्वयं कुपित नहीं होता, इसलिए मैं अपने आपको रोककर यह सब कह रहा हूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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