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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 52-59
इधर द्यूत का पारा चढ़ता जा रहा था, उधर हाल बिगड़ता हुआ देखकर विदुर ने धृतराष्ट्र को समझाया, “महाराज, मरने वाले को जैसे औषध अच्छी नहीं लगती, वैसे ही मेरा कथन आपको न रुचेगा, फिर भी कहूंगा, विचार करें। दुर्योधन भरतवंश के लिए काल जन्मा है। यह राजभवन में ही शृगाल उत्पन्न हो गया है। मधु का लोभी जैसे पहाड़ की चोटी पर खड़ा हुआ छत्ते को देखता है, खड्ड को नहीं देखता, ऐसे ही यह दुर्योधन अक्ष-द्यूत से मत्त पाण्डवों से वैर कर अपना नाश नहीं देखता। आपको ज्ञात है, जितने यादव, भोज और अन्धक कंस के सगे-सम्बन्धी थे, सबने उसे छोड़ दिया। ऐसे ही सौ-सौ वर्षों से खाने-पीने वाले आपके जाति बन्धु भी अलग हो जाएंगे। आप यदि आज्ञा दें तो अर्जुन दुर्योधन को कैद कर लें, उस पापी के निग्रह से सब कौरव सुखी होंगे। हे राजन, इस कौए को त्याग कर मोरों को और इस शृगाल को त्याग कर शार्दूल पाण्डवों को अपने पक्ष में करो। क्यों शोक-समुद्र में डूबते हो? नीति है कि कुल के लिए एक पुरुष को, एक कुल को ग्राम के लिए, ग्राम को जनपद के लिए त्याग दे, और आवश्यकता हो तो अपने लिए पृथ्वी भर को छोड़ दें। प्राचीन काल में कवि-पुत्र उशना ने इस नीति का उपदेश असुरों को देकर कहा था कि तुम लोग पापी जम्भासुर का त्याग कर दो। वन में रहने वाले कुछ पक्षियों ने, जो सोना उगलते थे, किसी के घर में घोंसला ला रखा। उस अन्धे ने सोने के लोभ से उन्हें मारकर अपने वर्तमान और भावी दोनों लाभों का नाश कर लिया। ऐसे ही राजन, तुम पाण्डवों से द्रोह करके पछताओगे। उद्यान में जैसे-जैसे पुष्प फलते हैं, माली उन्हें चुनता है, किन्तु कोयला फूंकने वाला सारे पेड़ को जड़ मूल से जला डालता है। “द्यूत कलह का मूल है। आपस में फूट पैदा करके युद्ध करा देता है। दुर्योधन वैसा ही उग्र वैर करने वाला है। वह मद से सारे राष्ट्र के क्षेम को मिटा देगा, जैसे बैल स्वयं अपने सींग को तोड़ डालता है, जैसे नौसिखुए कर्णधार की नाव पर चढ़कर यात्री समुद्र में डूबता है, वैसे ही हे राजन, तुम भी नष्ट होगे। दुर्योधन पाण्डवों के साथ द्यूत में जीतता है, क्या इससे प्रसन्न होते हो? इस उत्पन्न होती हुई घोर अग्नि को अयुद्ध से शांत करो। द्यूत द्वारा आप जितना धन चाहते हैं, उससे कहीं अधिक के लिए पाण्डवों को अपने पक्ष में क्यों नहीं करते?” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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