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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 52-59
इस प्रकार वह सुहृद्-द्यूत आरम्भ हो गया। पहले दांव में युधिष्ठिर ने समुद्र से उत्पन्न अपनी सर्वश्रेष्ठ मणि लगाई। जवाब में दुर्योधन ने भी अपनी मणियां रख दीं और ‘मुझे धन से क्या लेना है’ यह कहते हुए वह चट बोल पड़ा, “अब जीता!” अक्ष-विद्या का मर्म जानने वाले शकुनि ने पांसा फेंकते हुए कहा, “वह जीता!” युधिष्ठिर कहते ही रहे, “अरे, यह दांव कपट से जीत लिया, अभी और बहुतेरे दांव चलने हैं। ये सहस्र निष्कों कण्ठियों से भरी हुई सौ कुंडियां दांव पर लगाता हूँ।” लेकिन शकुनि पांसे फेंककर झट बोला, “वह जीता!” युधिष्ठिर ने फिर कहा, “यह मेरा व्याघ्र के चमड़े से मढ़ा और घंटियों से झनझनाता हुआ जैत्ररथ है। सहस्र कार्षापण इसका मूल्य है। अब की बार इसी धन से खेलता हूँ।” इतना सुनना था कि शकुनि ने फिर उसी कपट से पांसा फेंकते हुए आवाज दी, “वह जीता!” इसके बाद युधिष्ठिर ने सुवर्ण के आभूषणों से सज्जित एक सहस्र हाथी; दस संहस्र निष्क से अलंकृत दासियां, उतने ही दास, हैमसज्जित रथ, तीतरपंखी रंग के गांधार देश के घोड़े एवं रथ और शकटों में जुतने वाले ऐसे अनेक अश्व जो दूध-भात का भोजन पाते और खड़े रहते थे, दांव पर रखे, पर शकुनि ने उसी प्रकार कूट चाल से पांसा जीत कर कहा, “वह जीता!” इसके बाद युधिष्ठिर ने अपना कोष भी दांव पर लगा दिया। उसमें चार सौ तांबे के कलश थे और एक-एक में तौल में पांच-पांच द्रोण आहत सुवर्ण-मुद्राएं थीं। उसे भी शकुनि ने “वह जीता!” कहकर हर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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