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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 52-59
महाभारत के समस्त कथा-प्रवाह में जिस प्रकार अकेला ही यह श्लोक धृतराष्ट्र के कुटिल चरित्र को तराश कर सामने रखता है, उस प्रकार का और कोई श्लोक ढूंढे न मिलेगा। ठीक अवसर पर कहे हुए इस श्लोक में वेदव्यास की साहित्यिक प्रतिभा की पराकाष्ठा है। चरित्र-चित्रण का इतना संक्षिप्त और चुटीला उदाहरण दूसरा नहीं मिलता। क्या सचमुच धृतराष्ट्र का भीतरी मन इतनी दूर तक दुर्योधन के षड्यंत्र में सना हुआ था? हमें स्मरण है कि एक पहले अवसर पर भी जब दुर्योधन ने यह प्रस्ताव किया था कि यदि धृतराष्ट्र किसी मीठे उपाय से पाण्डवों को हस्तिनापुर से बाहर वारणावत नगर भेज दें तो वह राज्य का पूरा अधिकार कर ले, तब धृतराष्ट्र ने ऐसे ही कहा था, “दुर्योधन, बात तो कुछ ऐसी ही मेरे मन में भी चक्कर काट रही है, पर इस पापी विचार को खुलकर कह नहीं सकता।” धृतराष्ट्र का प्रस्तुत वाक्य तो कहीं अधिक निष्ठुर है। द्रौपदी के दांव पर रखे जाने से कर्ण, दुःशासन आदि की तो बाछें खिल गई। उस सभा में और जो लोग थे, उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। उधर मदोद्धत शकुनि ने बिना विचारे “वह जीती!” की आवाज लगाई। जब बात बढ़ती हुई इस दुःखद स्थिति तक पहुँच गई, तब कौरव फूले न समाये। दुर्योधन ने डपट कर कहा, “हे विदुर, जाओ और पाण्डवों की प्रिय भार्या द्रौपदी को यहाँ ले आओ। वह जाकर शीघ्र घर का आंगन बुहारे और दूसरी दासियों की तरह हमें सुख दे।” यह सुनकर विदुर ने अपने को कठिनता से सम्हालते हुए कहा, “हे मूर्ख, तू गड्ढे में गिरता हुआ अपने आपको नहीं देखता। हिरण होकर व्याघ्रों को कुपित करना चाहता है। कृष्णा किसी प्रकार की दासी नहीं बनी, क्योंकि द्रौपदी को दांव पर रखते समय युधिष्ठिर स्वयं स्वतन्त्र नहीं रह गए थे। आज मैं देखता हूँ कि नरक का घोर द्वार खुल गया है। शिलाएं तैर रही हैं और नाव डूब रही है। राजा धृतराष्ट्र का मूढ़ पुत्र किसी की बात नहीं सुनता, इससे कुरुवंश का दारुण विनाश अवश्य होकर रहेगा।” विदुर के वचन का दुर्योधन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने उलटे एक दूसरे सूत को आज्ञा दी, “तुम जाओ और शीघ्र दौपदी को यहाँ लाओ। विदुर की तरह तुम्हें पाण्डवों से भय नहीं है।” राजवचन सुनकर वह सूत गया और सिंह की मांद में कुत्ते की तरह घुसकर पाण्डवों की राज-महिषी के पास पहुँचा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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