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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 30-42
कृष्ण न राजा है, न ऋत्विज है, न आचार्य; किस नियम से आपने उसको सम्मान दिया? यदि ऐसा ही करना था तो राजाओं को यहाँ बुलाकर उनका अपमान करने की क्या आवश्यकता थी? हमने भय से, लोक से, या चापलूसी से युधिष्ठिर को कर नहीं दिया, बल्कि यह समझा था कि धर्म के मार्ग से युधिष्ठिर राजा होना चाहते हैं, तभी हमने उसे कर दिया। किन्तु वह हमें कुछ नहीं मानते। इसे अपमान के सिवा और क्या समझा जाय, जो इस राज्य-संसद में राज्य-चिह्न प्राप्त न करने पर भी कृष्ण को अर्घ्य दिया गया? ‘युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं’ यह बात आज अकस्मात मिट्टी में मिल गई। कृष्ण तो धर्मच्युत हैं, क्योंकि वृष्णिकुल में जन्म लेकर, जहाँ राजा नहीं होते, इन्होंने एक राजा (जरासन्ध) का वध किया? आज युधिष्ठिर का सारा धर्मात्मापन चला गया और उनका हृदय संकीर्ण हो गया! पर यह पाण्डव भयभीत होकर कृपण बन गए तो हे कृष्ण, तुम्हें तो यह समझाना था कि पूजा के अधिकारी न होते हुए मैं उसे कैसे स्वीकार करूं। इस अयुक्त पूजा से तुम्हारे लिए अपना बड़प्पन समझाना ऐसा ही है, जैसे कोई कुत्ता एकांत में हवि का टुकड़ा खाकर अकड़ता है। राजाओं का तो इस अपमान से कुछ बिगड़ा नहीं, तुम्हारी ही हे कृष्ण, इससे विडम्बना हुई। जैसे अन्धे को कोई शीशा दिखाए या नपुंसक का विवाह करे, राजा के होते हुए तुम्हारी यह राजा-जैसी पूजा है। युधिष्ठिर जैसे राजा हैं, वैसे ही यह देख लिया, भीष्म जैसे राजा हैं, यह भी देख लिया, और जैसे यह कृष्ण हैं, वह भी देख लिया। सब जैसा तैसा ही है।” यह कहकर शिशुपाल उठा और अनेक राजाओं के साथ आसन छोड़ कर संसद से बाहर चला गया। तब युधिष्ठिर शिशुपाल के पीछे दौड़े और मनाते हुए मीठे वचन कहने लगे, “हे राजन, तुमने जैसा कहा, वह उस प्रकार नहीं है। ऐसा रूखा व्यवहार अनुचित है। शायद तुम धर्म को नहीं जानते। यह शान्तनु के पुत्र भीष्म हैं, इनका अनादर ठीक नहीं। और भी, देखो, तुमसे कहीं आयु में बड़े राजा यहाँ हैं, उन्हें कृष्ण की पूजा पर कोई आपत्ति नहीं हुई। तुम भी उसे वैसे ही सह लेते। भीष्म कृष्ण को ठीक समझते हैं, तुम उन्हें नहीं जानते।” यह देखकर भीष्म ने कहा, “इसको मनाना व्यर्थ है। कृष्ण आयु में या राजपद में वृद्ध न सही, पर लोक में वह वृद्धतम हैं। न केवल जो लोग यहाँ आये हैं, उनमें कृष्ण पूज्यतम हैं, अपितु तीनों लोकों में अर्चनीय हैं। अतएव बड़े-बूढ़ों के होते हुए भी हमने कृष्ण की पूजा की, दूसरों की नहीं। मैंने भी बहुत से ज्ञानवृद्धों से भेंट की है, उन सबने कृष्ण के गुणों का मुझसे बखान किया है। जन्म से लेकर आज तक जो कर्म हैं, उनकी चर्चा लोक में मैंने मनुष्यों से सुनी है। हे चेदिराज, किसी कामना से या सम्बन्धी जानकर हमने कृष्ण की पूजा नहीं की। यहाँ उपस्थित लोगों में कोई बालक भी ऐसा नहीं है, जिसे हमने न परख लिया हो। गुणों के कारण ही हमने कृष्ण को सिरमौर समझ कर उनकी पूजा की। ब्राह्मणों में ज्ञान-वृद्ध और क्षत्रियों में अधिक बली पूज्य होते हैं। कृष्ण में दोनों बातें हैं। लोक में, मनुष्यों में, कृष्ण से बढ़कर कौन है? शिशुपाल यदि इस पूजा को ठीक नहीं समझता, तो जो वह ठीक समझे, करे।” भीष्म के चुप होने पर सहदेव ने भी अपनी बात कही, “हे राजाओं, मेरे द्वारा कृष्ण की पूजा जिसे न रूचि हो, उस बली के सिर पर मेरा पैर है। मैं यह कहता हूं, किसी के पास अच्छा उत्तर हो तो कहे। राजाओं में जो बुद्धिमान हो वे मेरा समर्थन करें।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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