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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 30-42
जिस दिन अभिषेक का समय आया, उस दिन ब्राह्मण और ऋषि लोग यज्ञ की अंतर्वेदी में प्रविष्ट हुए। उस समय भीष्म ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा, “हे भारत, आए हुए राजाओं का यथायोग्य सत्कार होना चाहिए। ऐसा प्राचीन नियम है कि आचार्य, ऋत्विज, राजा, स्नातक, अपने भाई-बन्धु और स्त्री-पक्ष के सम्बन्धी- ये छह संवत्सर के अनन्तर जब दर्शन दें तो वे विशेष सम्मानीय अतिथि होते हैं। तुम्हारे यहाँ तो ये सब लोग एकत्र हुए हैं, अतएव इन सबको अर्घ्य देना चाहिए और इन सबमें भी जो सबसे वरिष्ठ और श्रेष्ठ हो, उसे विशिष्ट रूप में पूजा से सम्मानित करना चाहिए।” यह सुनकर युधिष्ठिर ने पूछा, ‘‘हे पितामह, इन सबमें आप किसे सबसे अधिक पूजा के योग्य मानते हैं?’’ यह सुनकर भीष्म ने कहा, ‘‘हे युधिष्ठिर जितने लोग आये हैं, उन सबमें तेज, बल और पराक्रम द्वारा कृष्ण परम पूज्य हैं। नक्षत्रों में सूर्य के समान सबके मध्य में वह तप रहे हैं। उनकी उपस्थिति से हमारी यह यज्ञ-भूमि जगमग हो रही है।’’ इस प्रकार भीष्म की सम्मति पाकर सहदेव वार्ष्णेय कृष्ण के लिए तुरन्त अर्घ्य ले आये। कृष्ण ने उसे विधिवत स्वीकार किया। वासुदेव कृष्ण की यह पूजा शिशुपाल को ठीक न लगी। उसने संसद के बीच में ही भीष्म, युधिष्ठिर और कृष्ण इन तीनों पर आक्षेप किया। चेदिराज शिशुपाल ने कहाः “ऐसे महात्मा राजाओं के होते हुए कृष्ण को यह सम्मान देना ठीक नहीं। महात्मा पाण्डवों ने यह उचित शिष्टाचार नहीं किया। क्या इस विषय में जो सूक्ष्म मर्म है, उसे अनजान की भाँति आप नहीं जानते? भीष्म की समझ भी थोड़ी है। कृष्ण राजा नहीं हैं। कैसे सब राजाओं के मध्य में यह अर्घ्य के योग्य हैं, जो आपने इनकी पूजा की? यदि आयु में बड़ा जानकर यह किया हो, तो वृद्ध वसुदेव के होते हुए उनके पुत्र की पूजा कैसी? अथवा कृष्ण को आचार्य मानकर पूजा की हो तो द्रोण के होते हुए वह भी अनुचित है। यदि कृष्ण को पूजा के लिए ऋत्विज समझा हो, तो व्यास के होते हुए कृष्ण की अर्चा कैसी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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