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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 5
“अपने कुलीन और अनुरक्त मंत्रियों को व्यवहार में तुम आत्मवत समझते हो या नहीं? तुम्हारे प्रति उनकी बुद्धि पवित्र है या नहीं? तुमने उन्हें जीवन के सब साधनों से सम्पन्न बनाया है या नहीं? जिस राजा के मंत्री को शास्त्रों में चतुर मंत्रधनी अमात्य सु-गुप्त रखते हैं, उसे ही विजय मिलती है। तुम समय पर सोकर ठीक समय पर जागते हो या नहीं? रात्रि के अन्तिम भाग में शांत मन से अपने कार्यों पर विचार करते हो या नहीं? कहीं तुम केवल प्रधानमंत्री तक ही अपनी मंत्रणा को सीमित तो नहीं रखते? अथवा मंत्रि-परिषद के सभी मंत्रियों को महत्त्वपूर्ण विषय के मंत्र में सम्मिलित तो नहीं करते? केवल प्रधानमंत्री के साथ मंत्र करने से वह राजा को अपने मत से प्रभावित कर सकता है, जबकि बहुत से मंत्रियों के साथ किया हुआ रहस्यपूर्ण मंत्र प्रकट हो जाता है। कहीं तुम्हारा किया हुआ गुप्त मन्त्र सारे राष्ट्र में तो नहीं फैल जाता? राष्ट्र के लिए महान अभ्युदय वाले जो निश्चय तुम करते हो, उन पर तुरन्त कार्य करना आरम्भ कर देते हो या नहीं? उन्हें लम्बा तो नहीं टाल देते? तुम्हारे जो कार्याध्यक्ष हैं, उनको सदा अपने से परोक्ष रखकर भयभीत तो नहीं कर देते? अथवा वे सब परित्यक्त से तो नहीं रहते? राजा का सान्निध्य उनको कर्मक्षम रखता है। तुम्हारे कर्मों की सूचना फल निष्पन्न होने पर ही औरों को मिलती है या नहीं? अनवाप्त कर्मों की बात तो चारों ओर नहीं फैल जाती? तुम्हारे राज्य के कार्यालयों के अध्यक्ष और सैनिक-विभाग के अधिकारी निर्दिष्ट कर्तव्यों का पालन करने में समर्थ होते हैं या नहीं? कार्यालय के कामों में जो विज्ञ हैं, ऐसे एक पंडित को रखना अच्छा है, हजार मूर्खों को रखना अच्छा नहीं, क्योंकि जब काम अटकता है, तब केवल बुद्धिमान ही उस संकट से बचाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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