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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 5
एक बार नारद ऋषि युधिष्ठिर के पास उस सभा में उपस्थित हुए और धर्म, काम एवं अर्थ से युक्त अनेक कुशल-प्रश्न उन्होंने पूछे। इस.. प्रकरण को ‘कच्चिदध्याय’, ‘नारद-प्रश्नमुखेन राजधर्मानुशासन’ अथवा ‘युधिष्ठिर-नारद-प्रश्न’ कहा गया है। नारद-राजनीति का लगभग सौ श्लोकों का यह प्रकरण कौटिल्य के अर्थशास्त्र से अनेक बातों में मिलता है। इसमें ‘प्रति’ नाम के एक प्राचीन सिक्के का भी उल्लेख है, जो चौथी शती ई. पू. से पहली शती ई. पू. के बीच में कार्षापण सिक्के का चालू नाम था। सम्भावना है कि मौर्यकाल के बाद शुंग-काल में किसी समय इस प्रकरण को महाभारत में स्थान मिला। रामायण में भी इससे मिलता-जुलता एक प्रकरण है।[1] राजनीति के ज्ञान की दृष्टि से इस अध्याय का पर्याप्त महत्त्व है। नारद इस प्रकार प्रश्न करने लगे: “हे युधिष्ठिर, अपने राज्य में तुम्हें धन की प्राप्ति तो होती है? क्या धर्म में तुम्हारा मन लगता है? कामसुखों का उपभोग करते हुए तुम त्रिवर्ग के अनुकूल जीवन व्यतीत करते हो या नहीं? पिता-पितामह के समय से धर्म और धन के आधार पर स्थापित राज्य की पद्धति तुम्हारे समय में भी अक्षीण तो है? अर्थ, धर्म और काम, इन तीन पुरुषार्थों को अपनी-अपनी जगह बांट कर तो तुम चलते हो? इनमें से कोई एक प्रवृद्ध होकर दूसरों को दबोच तो नहीं लेता? सन्धि, युद्ध, भेद की नीति, चढ़ाई, किलेबन्दी इत्यादि जो राज्य संचालन के उपाय हैं, उनको तुम अपनी कुशाग्र बुद्धि से ठीक समझ लेते हो? कृषि, वणिक-पथ, दुर्ग-निर्माण, जलाशयों में सेतु-बंधन, गज-प्राप्ति, खनिज-संपत्ति, कर-ग्रहण और राज्य के पड़ती पड़े हुए स्थानों में जनपद-निवेश-इन आठ बातों पर समुचित ध्यान देते हो या नहीं? अमात्य, सुहृत, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना-ये सब तुम्हारे राज्य में सुदृढ़ तो हैं? दुर्गाध्यक्ष, वनाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, दूत, पुरोहित और ज्योतिषी राज्य के ये छह अधिकारी तुम्हारे प्रति अनुरक्त हैं, धनधान्य से प्रसन्न है, एवं व्यसनों में आसक्त तो नहीं हैं? जिन दूतों पर तुम्हारा भरोसा है, वे तुम्हारे अमात्य अथवा तुम स्वयं किसी प्रकार अपने गुह्य मंत्र को प्रकट तो नहीं कर देते? अथवा उसके विषय में विविध अनुमान लगाकर उसकी वास्तविकता को तो दूसरे लोग नहीं जान लेते? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अयोध्याकाण्ड अ. 100
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