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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 210-213
यह सुनकर कृष्ण ने कहा, “अर्जुन ने हमारे कुल का कोई अपमान नहीं किया। सुभद्रा के लिए यह सम्बन्ध उचित ही है। कुन्तिभोज की पुत्री कुन्ती के पुत्र अर्जुन के साथ सम्बन्ध कौन न चाहेगा? और फिर उसके साथ युद्ध करने में कौन समर्थ है?” कृष्ण के ऐसे समझाने पर सब लोग शांत हुए। जब अर्जुन हस्तिनापुर पहुँचे तब पहले तो द्रौपदी ने उन्हें बुरा-भला कहा, “हे अर्जुन, वहीं जाओ, जहाँ तुम्हारी वह वल्लभा है।” कितनी भी कसकर बांधो, पहली बांधी हुई गांठ ढीली पड़ ही जाती है।” इस प्रकार विलपती हुई कृष्णा को अर्जुन ने शांत किया और बार-बार क्षमा-याचना की। उधर सुभद्रा को गोपालिका के वेश में द्रौपदी के पास भेजा। उसने राजभवन में जाकर पहले कुन्ती के पैर छुए और फिर यह कहकर कि मैं आपकी दासी हूं, द्रौपदी की वंदना की। कृष्ण की बहन को अपने सामने देखकर द्रौपदी का मन भर आया और उसने उठकर उसका आलिंगन किया और उसे आशीर्वाद किया। इस सम्बन्ध को जानकर सब लोग परम प्रसन्न हुए। इधर जब द्वारका में अर्जुन के इन्द्रप्रस्थ पहुँचने का समाचार मिला तब सब अन्धक-वृष्णियों ने मिलकर निश्चय किया कि कृष्ण और बलराम के साथ हम सब लोग सुभद्रा के लिए यौतुक धन लेकर खाण्डवप्रस्थ चलें। बन्धुओं से ज्ञातिदेय उस महाधन को लेकर कृष्ण, बलराम और वृष्णिसमूह के इन्द्रप्रस्थ आने पर युधिष्ठिर ने सबका स्वागत किया। बलराम ने आगे बढ़कर पैर छुआई का वह नेग (पादग्रहणिक) अर्जुन को अर्पित किया। उसके बाद कुछ दिन तक कृष्ण वहीं रहे। समय पाकर सुभद्रा ने वीर अभिमन्यु को जन्म दिया। जन्म से ही कृष्ण ने उसकी सब क्रियाएं कीं। द्रौपदी से भी पांचों भाइयों के पांच पुत्र हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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