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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 43
ऊँ (सच्चिदानन्दमयी) प्रकृति देवी को नमस्कार है। ब्राह्मि! तुम ब्रह्मस्वरूपिणी हो। सनातनि! परमात्मस्वरूपे! परमानन्दरूपिणि! तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। भद्रे! तुम भद्र अर्थात कल्याण प्रदान करने वाली हो। दुर्गे! तुम दुर्गम संकट का निवारण तथा दुर्गति का नाश करने वाली हो। भवसागर से पार उतारने के लिये नूतन एवं सुदृढ़ नौकास्वरूपिणी देवि! मुझ पर कृपा करो। सर्वस्वरूपे! सर्वेश्वरि! सर्वबीजस्वरूपिणि! सर्वाधारे! सर्वविद्ये! विजयप्रदे! मुझ पर प्रसन्न होओ। सर्वमंगले! तुम सर्वमंगलरूपा, सभी मंगलों को देने वाली तथा सम्पूर्ण मंगलों की आधारभूता हो; मेरे ऊपर कृपा करो। भक्तवत्सले! तुम निद्रा, तन्द्रा, क्षमा, श्रद्धा, तुष्टि, पुष्टि, लज्जा, मेधा और बुद्धिरूपा हो; मुझ पर प्रसन्न होओ। वेदमातः! तुम वेदस्वरूपा, वेदों का कारण, वेदों का ज्ञान देने वाली और सम्पूर्ण वेदांग-स्वरूपिणी हो; मेरे ऊपर कृपा करो। जगदम्बिके! तुम दया, जया, महामाया, क्षमाशील, शान्त, सबका अन्त करने वाली तथा क्षुधापिपासारूपिणी हो; मुझ पर प्रसन्न होओ। विष्णुमाये! तुम नारायण की गोद में लक्ष्मी, ब्रह्मा के वक्षःस्थल में सरस्वती और मेरी गोद में महामाया हो; मेरे ऊपर कृपा करो। दीनवत्सले! तुम कला, दिशा, दिन तथा रात्रिस्वरूपा एवं कर्मों के परिणाम (फल)– को देने वाली हो; मुझ पर प्रसन्न होओ। राधिके! तुम सभी शक्तियों का कारण, श्रीकृष्ण के हृदय मन्दिर में निवास करने वाली, श्रीकृष्ण की प्राणों से भी अधिक प्रिया तथा श्रीकृष्ण से पूजित हो। मेरे ऊपर कृपा करो। देवि! तुम यशःस्वरूपा, सभी यश की कारण भूता, यश देने वाली, सम्पूर्ण देवीस्वरूपा और अखिल नारीरूप की सृष्टि करने वाली हो। शुभे! तुम अपनी कला के अंशमात्र से सम्पूर्ण कामिनियों का रूप धारण करने वाली, सर्वसम्पत्स्वरूपा तथा समस्त सम्पत्ति को देने वाली हो; मुझ पर प्रसन्न होओ। देवि! तुम परमानन्दस्वरूपा, सम्पूर्ण सम्पत्तियों का कारण, यशस्वियों से पूजित और यश की निधि हो; मेरे ऊपर कृपा करो। देवि! तुम समस्त जगत एवं रत्नों की आधारभूता वसुन्धरा हो, चर और अचरस्वरूपा हो; मुझ पर शीघ्र ही प्रसन्न होओ। सिद्धयोगिनि! तुम योगस्वरूपा, योगियों की स्वामिनी, योग को देने वाली, योग की कारणभूता, योग की अधिष्ठात्री देवी और देवियों की ईश्वरी हो; मेरे ऊपर कृपा करो। सिद्धेश्वरि! तुम सम्पूर्ण सिद्धिस्वरूपा, समस्त सिद्धियों को देने वाली तथा सभी सिद्धियों का कारण हो; मुझ पर प्रसन्न होओ। महेश्वरि! विभिन्न मतों के अनुसार जो समस्त शास्त्रों का व्याख्यान है, उसका तात्पर्य तुम्हीं हो। ज्ञानस्वरूपे परमेश्वरि! मैंने जो कुछ अनुचित कहा हो, वह सब तुम क्षमा करो। कुछ विद्वान प्रकृति की प्रधानता बतलाते हैं और कुछ पुरुष की। कुछ विद्वान इन दो प्रकार के मतों में व्याख्याभेद को ही कारण मानते हैं। पहले प्रलयकाल में एकार्णव के जल में शयन करने वाले महाविष्णु के नाभिदेश से प्रकट हुए कमल पर, उसी से उत्पन्न हुए जो ब्रह्मा जी बैठे थे, उन्हें महादैत्य मधु और कैटभ खेल-खेल में ही मारने को उद्यत हो गये। तब ब्रह्मा जी अपनी रक्षा के लिये तुम्हारी स्तुति करने लगे। उन्हें स्तुति करते देख तुमने उन दोनों महादैत्यों के विनाश के लिये जलशायी महाविष्णु को जगा दिया। तब नारायण ने तुम शक्ति की सहायता से उन दोनों महादैत्यों को मार डाला। ये भगवान तुम्हारा सहयोग पाकर ही सब कुछ करने में समर्थ हैं। तुम्हारे बिना शक्तिहीन होने के कारण ये कुछ भी नहीं कर सकते। सुरेश्वरि! पूर्वकाल में त्रिपुरों से संग्राम करते समय जब मैं आकाश से नीचे गिर पड़ा, तब तुमने ही विष्णु के साथ आकर मेरी रक्षा की थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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