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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 43
सनातन ज्ञानानन्दस्वरूप ज्ञाननिधे शंकर! मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो। तुम परात्पर परमेश्वर हो, परंतु शोकवश अपने-आपको भूल गये हो। प्रत्येक जगत में तथा जन्म-जन्म में सुदिन और दुर्दिन का चक्र निरन्तर चला करता है। वे सुदिन और दुर्दिन ही समस्त प्राकृत प्राणियों के लिये सुख-दुःख की प्राप्ति के मुख्य कारण होते हैं। सुख से हर्ष, दर्प, शौर्य, प्रमाद, राग, ऐश्वर्य की अभिलाषा और विद्वेष निरन्तर प्रकट होते रहते हैं। दुःख शोक और उद्वेग से सदा भय की प्राप्ति होती है। महेश्वर! यदि इनके बीज नष्ट हो जाएँ तो ये सब स्वतः नष्ट हो जाते हैं। चंचल मन ही पुण्य और पाप का बीज है। शम्भो! सम्पूर्ण इन्द्रियों सहित मन मेरा अंश है। सबका जनक जो अहंकार है, उसके अधिष्ठाता चेतन तुम हो और ये ब्रह्मा बुद्धि के अधिष्ठाता हैं। परब्रह्म परमात्मा एक हैं। गुण-भेद से ही सदा उसके भिन्न-भिन्न रूप होते हैं। वह ब्रह्मतत्त्व एक होने पर भी अनेक प्रकार का है। शिव! वह सगुण भी है और निर्गुण भी। जो मायारूप उपाधि का आश्रय लेता है, वह सगुण और जो मायातीत है, वह निर्गुण कहलाता है। भगवान स्वेच्छामय हैं। वे अपनी इच्छा से ही विविध रूपों में प्रकट होते हैं। उनकी इच्छाशक्ति का ही नाम प्रकृति है। वह नित्यस्वरूपा और सदा सबकी जननी है। कुछ लोग ज्योतिःस्वरूप सनातन ब्रह्म को एक ही बताते हैं तथा कुछ दूसरे विद्वान उसे प्रकृति से युक्त होने के कारण द्विविध कहते हैं। जो एक बताते हैं, उनका मत सुनो। ब्रह्म माया तथा जीवात्मा दोनों से परे है। उस ब्रह्म से ही वे दोनों (माया और जीवात्मा) प्रकट होते हैं; अतः ब्रह्म ही सबका कारण है। वह परब्रह्म एक होकर भी स्वेच्छा से दो हो जाता है। उसकी इच्छाशक्ति ही प्रकृति है, जो सदा सम्पूर्ण शक्तियों की जननी होती है। उससे संयुक्त होने के कारण वे परमात्मा ‘सगुण’ कहे जाते हैं। वे ही सबके आधार, सनातन, सर्वेश्वर, सर्वसाक्षी तथा सर्वत्र फलदाता होते हैं। शम्भो! शरीर भी दो प्रकार का होता है– एक नित्य और दूसरा प्राकृत। नित्य शरीर का विनाश नहीं होता; परंतु प्राकृत शरीर सदा नश्वर होता है। भगवन! हम दोनों के शरीर नित्य हैं। हमारे अंशभूत जो अन्य जीव हैं, उनके शरीर त्रिगुणात्मिका प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण प्राकृत कहलाते हैं। प्राकृत शरीर सदा ही विनाशशील हैं। रुद्र आदि तुम्हारे अंश हैं और विष्णुरूपधारी मेरे अंश। मेरे भी दो रूप हैं– द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज मैं हूँ और वैकुण्ठ धाम में लक्ष्मी तथा पार्षदों के साथ रहता हूँ। द्विभुजरूप से मैं श्रीकृष्ण कहलाता हूँ और गोलोक में गोपियों तथा राधा के साथ निवास करता हूँ। जो ब्रह्म को द्विविध बताते हैं, उनके मत में दो प्रधान तत्त्व हैं– नित्य पुरुष तथा नित्या प्रकृति ईश्वरी। शिव! वे दोनों सदा परस्पर संयुक्त रहते हैं। वे ही सबके माता-पिता है। वे दोनों अपनी इच्छा के अनुसार कभी साकार और कभी निराकार होते हैं। दोनों ही सर्वस्वरूप हैं। जैसे पुरुष की नित्य प्रधानता है, उसी तरह प्रकृति की भी है। शम्भो! यदि तुम सती को पाना चाहते हो तो प्रकृति का स्तवन करो। तुमने पूर्वकाल में दुर्वासा को प्रसन्नतापूर्वक जिस स्तोत्र का उपदेश दिया था, वह दिव्य है और उसका कण्वशाखा में वर्णन किया गया है। तुम उसी के द्वारा जगदम्बा की आराधना करो। शिव! मेरे आशीर्वाद से तुम्हारे शोक का नाश हो। तुम्हें कल्याण की प्राप्ति हो और तुम्हारे लिये विप्लव का कारण बना हुआ पत्नी के वियोग का यह रोग दूर हो जाये। गिरिराज! ऐसा कहकर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु चुप हो गये। तदनन्तर महेश्वर ने प्रकृति के स्तवन का कार्य आरम्भ किया। उन्होंने स्नान करके श्रीकृष्ण और ब्रह्मा को भक्तिपूर्वक हाथ जोड़ नमस्कार किया। उस समय उनका अंग-अंग पुलकित हो उठा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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