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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 7
भगवान नारायण कहते हैं– इस प्रकार स्तुति सुनाकर देवता लोग अपने-अपने धाम को चले गये। फिर जल की वृष्टि होने लगी। सारी मथुरा नगरी निश्चेष्ट होकर सो रही थी। मुने! वह रात्रि घोर अन्धकार से व्याप्त थी। जब रात के सात मुहूर्त निकल गये और आठवाँ उपस्थित हुआ, तब आधी रात के समय सर्वोत्कृष्ट शुभ लग्न आया। वह वेदों से अतिरिक्त तथा दूसरों के लिये दुर्ज्ञेय लग्न था। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। अशुभ ग्रहों की नहीं थी। रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि के संयोग से जयन्ती नामक योग सम्पन्न हो गया था। मुने! जब अर्धचन्द्रमा का उदय हुआ, उस समय लग्न की ओर देख-देखकर भयभीत हुए सूर्य आदि सभी ग्रह आकाश में अपनी गति के क्रम को लाँघकर मीन लग्न में जा पहुँचे। शुभ और अशुभ सभी वहाँ एकत्र हो गये। विधाता की आज्ञा से एक मुहूर्त के लिये वे सभी ग्रह प्रसन्नतापूर्वक ग्यारहवें स्थान में जाकर वहाँ सानन्द स्थित हो गये। मेघ वर्षा करने लगे। ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। पृथ्वी अत्यन्त प्रसन्न थी। दसों दिशाएँ स्वच्छ हो गयी थीं। ऋषि, मनु, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, देवता और देवियाँ सभी प्रसन्न थे। अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। गन्धर्वराज और विद्याधरियाँ गीत गाने लगीं। नदियाँ सुखपूर्वक बहने लगीं। अग्निहोत्र की अग्नियाँ प्रसन्नतापूर्वक प्रज्वलित हो उठीं। स्वर्ग में दुन्दुभियों और आनकों की मनोहर ध्वनि होने लगी। खिले हुए पारिजात के पुष्पों की झड़ी लग गयी। पृथ्वी नारी का रूप धारण करके स्वयं सूतिकागार में गयी। जहाँ जय-जयकार, शंखनाद तथा हरि कीर्तन का शब्द गूँज रहा था। इसी समय सती देवकी वहाँ गिर पड़ीं। उनके पेट से वायु निकल गयी और वहीं भगवान श्रीकृष्ण दिव्यरूप धारण करके देवकी के हृदय कमल के कोश से प्रकट हो गये। उनका शरीर अत्यन्त कमनीय और परम मनोहर था। दो भुजाएँ थीं। हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। कानों में मकराकृति कुण्डल झलमला रहे थे। मुख मन्द हास्य की छटा से प्रसन्न जान पड़ता था। वे भक्तों पर कृपा करने के लिये कातर-से दिखायी पड़ते थे। श्रेष्ठ मणि-रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित आभूषण उनके शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। पीताम्बर से सुशोभित श्रीविग्रह की कान्ति नूतन जलधर के समान श्याम थी। चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम के द्रव से निर्मित अंगराग सब अंगों में लगा हुआ था। उनका मुखचन्द्र शरत्पूर्णिमा के शशधर की शुभ ज्योत्स्ना को तिरस्कृत कर रहा था। बिम्बफल के सदृश लाल अधर के कारण उसकी मनोहरता और बढ़ गयी थी। माथे पर मोरपंख के मुकुट तथा उत्तम रत्नमय किरीट से श्रीहरि की दिव्य ज्योति और भी जाज्वल्यमान हो उठी थी। टेढ़ी कमर, त्रिभंगी झाँकी, वनमाला का श्रृंगार, वक्ष में श्रीवत्स की स्वर्णमयी रेखा और उस पर मनोहर कौस्तुभमणि की भव्य प्रभा अद्भुत शोभा दे रही थी। उनकी किशोर अवस्था थी। वे शान्तस्वरूप भगवान श्रीहरि, ब्रह्मा और महादेव जी के भी परम कान्त (प्राणवल्लभ) हैं। मुने! वसुदेव और देवकी ने उन्हें अपने समक्ष देखा। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। वसुदेव जी ने अपनी पत्नी देवकी के साथ अश्रुपूर्णनयन, पुलकित शरीर तथा नतमस्तक हो हाथ जोड़ भक्तिभाव से उनकी स्तुति की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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