ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 38-39
मन्दराचल पर्वत को मन्थनकाष्ठ, कच्छप को पात्र तथा शेषनाग को मन्थन की रस्सी बनाकर वे क्षीरसमुद्र को मथने लगे। फलस्वरूप धन्वन्तरि वैद्य, अमृत, उच्चैःश्रवा घोड़ा, विविध रत्न, हाथियों में रत्न ऐरावत, लक्ष्मी, सुदर्शन चक्र तथा वनमाला– ये अमूल्य पदार्थ उन्हें प्राप्त हुए। मुने! उस समय भगवान विष्णु में अपार श्रद्धा रखने वाली साध्वी श्रीलक्ष्मी ने क्षीरशायी सर्वेश्वर श्रीहरि के गले में वनमाला पहना दी। फिर देवता, ब्रह्मा और शंकर के पूजन एवं स्तवन करने पर उन्होंने देवताओं के भवन पर केवल दृष्टि फैला दी। इतने में ही देवताओं ने दुर्वासा मुनि के शाप से मुक्त होकर दैत्यों के हाथ में गये हुए अपने राज्य को प्राप्त कर लिया। नारद! यों महालक्ष्मी की कृपा से वर पाकर वे परम सुखी हो गये। इस प्रकार महालक्ष्मी का सम्पूर्ण श्रेष्ठ उपाख्यान मैंने बतला दिया। इस सारभूत उपाख्यान के प्रभाव से समस्त सुख प्राप्त हो जाता है। अब पुनः तुम क्या सुनना चाहते हो? नारदजी ने कहा– प्रभो! मैं भगवान श्रीहरि का मंगलमय गुणानुवर्णन, उत्तम ज्ञान तथा भगवती लक्ष्मी का अभीष्ट उपाख्यान सुन चुका। अब आप ध्यान और स्तोत्र प्रसंग बताने की कृपा कीजिये। भगवान नारायण कहते हैं– नारद! प्राचीन समय की बात है, देवराज इन्द्र ने क्षीर-समुद्र के तट पर तीर्थ में स्नान किया, दो स्वच्छ वस्त्र पहने, एक कलश स्थापित किया और छः देवताओं की पूजा की। वे छः देवता हैं– गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और दुर्गा। इन देवताओं की गन्ध, पुष्प आदि उपचारों से भक्तिपूर्वक भलीभाँति पूजा करने के पश्चात् इन्द्र ने परम ऐश्वर्यस्वरूपिणी भगवती महालक्ष्मी का आवाहन किया। अपने पुरोहित बृहस्पति तथा ब्रह्मा जी के बताये अनुसार पूजा सम्पन्न की। मुने! उस समय उस पवित्र देश में अनेक मुनिगण, ब्राह्मण-समाज, गुरुदेव, श्रीहरि, देववृन्द तथा आनन्दमय ज्ञानस्वरूप भगवान शंकर विराजमान थे। नारद! देवराज ने पारिजात का चन्दन-चर्चित पुष्प लेकर भगवती महालक्ष्मी का ध्यान किया और उनकी पूजा की। पूर्वकाल में भगवान श्रीहरि ने ब्रह्मा जी को जो ध्यान बतलाया था, उसी सामवेदोक्त ध्यान से इन्द्र ने भगवती का चिन्तन किया। मैं वह ध्यान तुम्हें बताता हूँ, सुनो– ‘परम-पूज्या भगवती महालक्ष्मी सहस्र दल वाले कमल की कर्णिकाओं पर विराजमान हैं। इनकी सुन्दर साड़ी शरत्पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमाओं की शोभा से सम्पन्न हैं। ये परम साध्वी देवी स्वयं अपने तेज से प्रकाशित हो रही हैं। इन परम मनोहर देवी का दर्शन पाकर मन आनन्द से खिल उठता है। इनकी अंगकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान है। रत्नमय भूषण इनकी छवि बढ़ा रहे हैं। इन्होंने पीताम्बर पहन रखा है। इन प्रसन्न वदन वाली भगवती महालक्ष्मी के मुख पर मुस्कान छा रही है। ये सदा युवावस्था से सम्पन्न रहती हैं और सम्पूर्ण सम्पत्तियों को देने वाली हैं। ऐसी कल्याणस्वरूपिणी भगवती महालक्ष्मी की मैं उपासना करता हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |