महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
25.द्रौपदी की व्यथा
पांडवों के विदा हो जाने के बाद कौरवों में बड़ी हलचल मच गई। पांडवों के इस प्रकार अपने पंजे से साफ निकल जाने के कारण कौरव बड़ा क्रोध-प्रदर्शन करने लगे और दु:शासन तथा शकुनि के उकसाने पर दुर्योधन फिर अपने पिता धृतराष्ट्र के सिर हो गया और पांडवों को खेल के लिए एक बार और बुलाने को उनको राजी कर लिया। उसने धृतराष्ट्र से कहा कि पांडवों को इस प्रकार लौटा देना ठीक नहीं हुआ। यहाँ उनका जो अपमान हुआ उसे वे नहीं भूलेंगे और इन्द्रप्रस्थ पहुँचते ही अपने दलबल के साथ हम पर चढ़ाई कर देंगे। नीति तो यही कहती है कि शत्रुओं को एक बार छेड़ने के बाद खुला नहीं छोड़ना चाहिए। अत: आप उन्हें चौपड़ खेलने को फिर बुलाइए। इस बार ऐसी तरकीब निकालेंगे कि वे नाराज भी न हों और हमारा काम भी बन जाये। और युधिष्ठिर को खेल के लिए बुलाने को फिर दूत भेजा गया। उन दिनों क्षत्रियों में यह रिवाज था कि अगर चौपड़ के खेल के लिए बुलावा आवे तो कोई क्षत्रिय उसे अस्वीकार नहीं कर सकता था। यह एक प्रकार की चुनौती होती थी और उसे मानना ही पड़ता था। पिछली घटना के कारण दु:खी होते हुए भी युधिष्ठिर को यह निमंत्रण स्वीकार करना पड़ा। वह बोले- "अगर हमें जुआ खेलना ही पड़ा तो खेलेंगे। यद्यपि मैं जानता हूँ कि वह विनाशकारी है; पर इससे बचने का कोई उपाय भी नहीं है। मनुष्य शुभ और अशुभ कर्म से निवृत्त नहीं हो सकता। जैसा प्रारब्ध में होता है मनुष्य को वही करना पड़ता है। यद्यपि सुवर्ण (सोने) का जंतु होना असंभव है; परंतु राम हिरण को देखकर लोभ में आ ही गये। यह इस बात को प्रमाण है कि जब पुरुषों का पराभव होने को होता है तब उनकी बुद्धि प्राय: नष्ट हो जाती है।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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