महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
23.खेलने के लिए बुलावा
वह पिता को राजनीति का पाठ पढ़ाता हुआ-सा बोला, "पिता जी, अगर आदमी में स्वाभाविक विवेक न हुआ तो उसका पढ़ा-लिखा होना किस काम का? माना कि आप नीति-शास्त्रों के पारंगत हैं। फिर भी जैसे पाक में डूबी रहने वाली कलुछी को उसके स्वाद का तनिक भी ज्ञान नहीं होता, वैसे ही शास्त्रों में डूबे रहने पर भी आपको उनके रहस्य का पता नहीं है। यदि यह बात न होती तो आप ऐसी बातें क्यों करते! स्वयं बृहस्पति ने कहा है राजनीति एवं संसार की रीति-नीति एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। संतोष और सहनशीलता राजाओं का धर्म नहीं है। संसार की दृष्टि में न्याय हो या अन्याय, राजा का तो कर्तव्य यही है कि वह किसी भी प्रकार शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे और अपनी सत्ता में वृद्धि करे।" शकुनि ने दुर्योधन की बातों का समर्थन किया और धृतराष्ट्र को सलाह दी कि चौसर के खेल के लिए पांडवों को बुलाया जाये। उसमें उन्हें हराकर बगैर लड़ाई के ही पांडवों पर विजय पाई जा सकती है। दुर्योधन का दु:ख दूर करने का इस समय यही उपाय है। इन कुमंत्रणाओं का प्रभाव धीरे-धीरे धृतराष्ट्र पर पड़ने लगा और उनका मन डांवाडोल होने लगा। दुर्योधन ताड़ गया। मौका देखकर बोला, "पिता जी! हथियार केवल वही नहीं होता जो घाव कर सके, बल्कि शत्रु को हराने में जो भी उपाय काम दे सकें, वे चाहे छिपे हों चाहे प्रकट रूप में, सब उपाय क्षत्रिय के हथियार माने जा सकते हैं। किसी के कुल या जाति से इस बात का निर्णय नहीं किया जा सकता कि वह शुत्र है या मित्र। जो भी दु:ख पहुँचाए, चाहे वह सगा भाई ही क्यों न हो, उसे शत्रु ही मानना चाहिए। केवल स्थितिपालक रहना, जो कुछ प्राप्त है, उसी को लेकर संतोष मानना, क्षत्रियों के लिए उचित नहीं। जो राजा शत्रु की बढ़ती देखकर उसे रोकने का प्रयत्न नहीं करता उसका सर्वनाश निश्चित है। राजाओं का कर्तव्य है कि शत्रु की बढ़ती पहले ही से ताड़ लें और उसे रोकने का सब प्रकार से प्रयत्न करें। हमारे भाई-बन्दों की बढ़ती हमारे ही नाश का उसी प्रकार कारण बन जायेगी, जिस प्रकार पेड़ की जड़ पर चींटियों का बनाया हुआ बिल समय पाकर पूरे पेड़ का ही नाश कर देता है।" दुर्योधन का कथन पूरा हुआ तो कुशाग्र-बुद्धि दुरात्मा शकुनि बोला- "महाराज, आप युधिष्ठिर को चौसर के खेल के लिए बुलावा भेज दें, आगे की सारी जिम्मेदारियां मुझ पर छोड़ दें।" दुर्योधन ने भी उत्साह के साथ कहा, "बिना प्राणों को जोखिम में डाले और युद्ध किये मामा शकुनि पांडवों की संपत्ति छीनकर मुझे सौंपने को तैयार हैं। आपको तो केवल यही करना है कि युधिष्ठिर को न्यौता भर भेज दें।" दोनों के इस प्रकार आग्रह करने पर भी धृतराष्ट्र ने तुरन्त हां नहीं की। वह बोले- "मुझे वह उपाय ठीक नहीं जंच रहा है। मैं विदुर से भी तो सलाह कर लूं। वह बड़ा समझदार है। मैं हमेशा से उसका कहा मानता आया हूँ। उससे सलाह कर लेने के बाद ही कुछ तय करना ठीक होगा।" पर दुर्योधन को विदुर से सलाह करने की बात पसन्द नहीं आई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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