महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
92.दुर्योधन का अंत
जांघ टूट जाने के कारण अधमरी अवस्था अवस्था में पड़े दुर्योधन ने जब श्रीकृष्ण के ये वचन सुने तो उसके दिल में क्रोध और द्वेष की आग-सी भड़क उठी। वह चिल्लाकर बोला- "अरे निर्लज्ज कृष्ण! धर्म-युद्ध करने वाले हमारे पक्ष के सारे यशस्वी महारथियों को तुमने ही कुचक्र रचकर मरवा डाला है, जिस पर मुझे पापी कहते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती। यह तुमने कुचक्र न रचा होता, तो कर्ण, भीष्म, द्रोण भला समर में परास्त होने वाले थे?" मरणासन्न अवस्था में दुर्योधन को इस प्रकार विलाप करते देख श्रीकृष्ण बोले- "दुर्योधन! तुम बेकार की बातें कर रहे हो। अब यह तुम्हारा अन्त समय है। लोभ में पड़कर और राज्य सत्ता के घमंड में मदान्ध होकर तुमने जो अनगिनत महापाप किये, उन्हीं का यह परिणाम है अब तो कुछ समझ से काम लो। क्यों किसी को व्यर्थ दोष देते हो? अपने अपराध के लिए दूसरों को दोष देना बेकार है।" यह सुन दुर्योधन बोला- "क्षत्रिय लोग जैसी मृत्यु की अभिलाषा करते हैं, वैसे ही वीरोचित मृत्यु मुझे प्राप्त हुई है। मेरे समान भाग्यवान आज और कौन होगा? मरने पर भी मेरा सुयश सदा बना रहेगा। पर तुम जीते रहो और लोक-निन्दा के पात्र बने रहो। भीमसेन ने जो मेरे सिर पर लात मारी है, उसकी मुझे जरा भी चिन्ता नहीं, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर में चील-कौए भी मेरे माथे पर अपनी लातें रखने ही वाले हैं।" लालच में पड़कर दुर्योधन अधर्म पर उतारू हुआ था। उसके फलस्वरूप जो वैर-भाव बढ़ा, उसके कारण दोनों तरफ अधर्म के अनेक काम हुए। अधर्म का फल अधर्म ही हुआ करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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