महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
53.नहुष
उन्होंने आग्रहपूर्वक अनुरोध किया कि वह देवराज की इच्छा पूरी करने में आना-कानी न करें। सती शची देवी यह सुनकर भय और क्रोध से कांप उठीं। वह फिर बृहस्पति के पास दौड़ी गईं और हाहाकार करके बोलीं- "मुझसे यह नहीं हो सकता। हे ब्रह्मणोत्तम! मैं इस समय आप ही की शरण में हूँ। इस विपत्ति से मेरी रक्षा करें।" बृहस्पति ने शची को धीरज देते हुए कहा- "दीन शरणागत को शत्रु के हाथों सौंपने वाले, दगा करने वाले का निश्चय ही नाश हो जायेगा। उसके बोये हुए बीज भी उग नहीं सकेंगे। सड़कर मिट जायेंगे। निश्चय रखो कि मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोडूंगा। डरों नहीं। नहुष का सर्वनाश निकट ही है। समय के फेर से जो संकट पहुँचता है, वह समय के बीत जाने से दूर भी हो जाता है।" बृहस्पति ने संकट से बचने का जो मार्ग शची को बताया वह प्रखर बुद्धि इन्द्राणी की समझ में तुरंत आ गया। उन्हें धीरज बंधा और वह बेधड़क नहुष के पास चली गईं। इन्द्र-पद के घमंड और काम-वासना के कारण नहुष की बुद्धि ठिकाने नहीं थी। इन्द्राणी को देखते ही वह हर्ष से फूला न समाया। उसने सोचा कि इन्द्राणी अब मेरी इच्छा पूरी करने के लिये ही आई है। वह मेरी ही बन गई है। अत: प्रेम भरे शब्दों में वह शची से बोला- "हे सुंदरी! आज तो तीनों लोकों का मैं ही स्वामी हूं, मैं ही न्यायकर्ता हूँ। अत: तुम्हें पाप का भय नहीं होना चाहिए। तुम मेरी पत्नी बन जाओ।" दुष्ट नहुष की बातें सुनकर सती इन्द्राणी कांप उठी। फिर भी उसने अपने-आपको संभाल लिया और बोली- "देवराज! धीरज धरिये। आखिर मुझे आपकी ही तो होना है। पर फिर भी इस बात का पता और लगा लेना चाहिए कि इन्द्र अभी जीवित हैं या नहीं और अगर जीवित हैं तो कहाँ हैं? इधर-उधर उनकी जांच-पड़ताल कर लेनी चाहिए। इसके बाद अगर वह न मिलें तो फिर मैं नि:शंक होकर आपके पास चली आउंगी। तब मुझे कोई पाप नहीं लग सकता। आशा है, मेरी इस प्रार्थना को मानने में आपको कोई आपत्ति नहीं होगी।" यह सुनकर नहुष बहुत खुश हुआ। बोला- "तुम्हारा कहना ठीक है। इन्द्र की खोज करा लेना उचित होगा। उसका पता लगाकर जरूर मेरे पास आ जाना। देखो, मुझे जो वचन दे चुकी हो, उसे तोड़ना मत।" इस प्रकार नहुष को राजी करके शची बृहस्पति के पास लौट आई। उधर देवताओं ने भगवान विष्णु के पास जाकर विनती की- "जगन्नाथ! आपके ही तेज से वृत्रासुर का संहार हुआ था, किंतु इन्द्र को ब्रह्म-हत्या का जो पाप लगा है उससे पीड़ित होकर तथा लोकनिन्दा के डर से वह कहीं छिपे हुए हैं। आप ही कोई ऐसा रास्ता बतावें कि जिससे इन्द्र पाप से विमुक्त हो सकें और दुष्ट नहुष से इन्द्र-पत्नी की रक्षा हो।" भगवान विष्णु बोले-"इन्द्र को चाहिए कि वह मेरी आराधना करे। मेरी भक्ति करने से उनके हृदय का कलंक धुल जायेगा और कामांध नहुष का भी नाश होगा।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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