नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. गरुड़-कलिय-दमन
नागिनों की प्रार्थना, सखा का सम्बोधन सुना और कालिय के सिर से कूद पड़े श्रीकृष्णचन्द्र जल में। मूर्च्छित कालिय कुछ पल में सचेत हुआ। दीर्घ श्वास लेते बोला- 'परम प्रभु! सृष्टि आपका सृजन है। आपने ही सर्पों को तामसिक तथा अत्यन्त क्रोधी बनाया है। अपना स्वभाव कोई छोड़ नहीं पाता। आपके बनाये स्वभाव के अनुसार मैंने आचरण किया। अतः अब आपको मुझपर क्रोध या कृपा जो उचित लगे, करें।' कालिय की बात का सचमुच कोई उत्तर नहीं था। श्रीकृष्णचन्द्र ने उसे आदेश दिया- 'महासर्प! तुम अब सपरिवार यहाँ से अपने आवास नागालय रमणक द्वीप में चले जाओ। कालिन्दी का जल सर्वत्र पशुओं तथा मनुष्यों के स्नान-पान के योग्य रहना चाहिये। तुम्हारे मस्तक पर मेरे पदचिह्न स्थायी रहेंगे। अतः अब गरुड़ तुम्हें आतंकित नहीं करेंगे।' मुझसे तो कालिय तभी निर्भय हो गया जब वह कालिन्दी में आकर रहने लगा। ये सूर्य-सुता मेरे स्वामी की सहधर्मिणी हैं। जो उनके गर्भ में रह चुका, वह इनका पुत्र हो गया। मेरा तो यह सम्मान्य भाई हो चुका। अब इस पर इस कृपा का रहस्य भी मैं समझ गया। सौभरि द्वारा की गई मेरी अवज्ञा के प्रतिकार का साधन बनाया इसे स्वामी ने तो इसे पुरस्कृत करके अपनाना वे कैसे भूलते। कालिय की प्रार्थना पर एक बार कुछ पल को पुनः जल के तल में गये। उसने अर्चना की। वह सपरिवार विदा हुआ हृद से सुरसरि में होता समुद्र में जाने को और मेरे ये स्वामी नागमणियों के दिव्याभरणों से अलंकृत, कमलमाला धारण किये जल से बाहर आये। मैया ने, बाबा ने, गोपों ने, गोपियों ने, सखाओं ने किस उत्कण्ठा से इन्हें हृदय से लगाया, कैसे वर्णन करूँ। केवल इनके अग्रज अंकमाल देते समय बहुत खुलकर हँसते रहे। श्रीदामा से मिलते समय उसे कन्दुक दिखाकर बोले- 'अब तुझे नहीं मिलेगा।' श्रीदामा के नेत्र भर आये। वह भरे कण्ठ कह सका- 'इसे रख! कहेगा उतने कन्दुक और ला दूँगा; किंतु अब सर्प पर सोने कभी गया तो फिर तुमसे नहीं बोलूँगा।' यह सब तो हुआ; किंतु इसमें सायंकाल हो गया। सूर्यास्त हो चुका था। उपनन्दजी ने ही कहा- 'अब बालकों को लेकर इस समय लौटना उपयुक्त नहीं है। अन्धकार शीघ्र हो जायेगा और वन का मार्ग बीहड़ है। सब यहाँ उपकूल पर रात्रि-विश्राम करें!' 'तुम सबों के छीकों में कुछ है?' माता रोहिणी ने विशाल से पूछा। 'हाँ, छीके तो अभी सबके भरे हैं।' विशाल ने बतलाया- 'हमने दिन में तो खाया ही कितना है।' 'सब अपने छीके उठा लाओ!' सन्नन्दजी ने वन में कुछ भीतर निर्झर ढूँढ़ लिया था। सब वहाँ आ गये। मैया ने छीके मँगा लिये और सब बालकों को भोजन करा दिया। शेष सबने गायें दुहीं और गोदुग्ध लिया। वहीं सब भूमि पर तृण-पत्ते बिछाकर सो गये। मैं भी समीप के वृक्ष पर सो गया। |
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