नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. गणेश-गोचारण
सबको- एक-एक पशु को पुचकारा सस्नेह व्रजराजकुमार ने और तब वन-पशुओं को विदा करने का प्रयत्न किया- 'अब तुम सब जाओ!' यह कार्य सरल नहीं है। गोप पृथक करते हैं तो भी ये भागकर गायों में मिल जाते हैं। सुबल हँसता है- 'इन्हें भी गोष्ठ में बाँधना पड़ेगा।' 'आज सब पशु धर्म का आतिथ्य स्वीकार करें।' व्रजराज ने अपने महावृषभ की पीठ पर हाथ रखकर कहा। 'सब व्रजवासी आज व्रजेन्द्रनन्दन के अतिथि रहें!' महर्षि शाण्डिल्य का सदा गम्भीर मुख स्मित-शोभित हो गया। 'व्रज तो श्रीचरणों का अज्ञानुवर्ती है; किंतु.....' श्रीवृषभानुजी ने आपत्ति की- 'हमारे गोपों को और गोधन को आप क्षमा करें!' 'श्रीनन्दराय आपके गोधन को अपना नहीं कहेंगे, यदि यह इनके गोष्ठ में जाय!' महर्षि ने गोपों की चर्चा नहीं की। 'मेरा सौभाग्य होता यदि ये ऐसा करते।' वृषभानुजी ने व्रजेश्वर की ओर देखा। अब जब वृद्धों में भी विनोद आ गया तो तरुणों तथा बालकों की चर्चा क्यों की जाय। गोपों ने परस्पर दधि, दूध, नवनीत उछालना प्रारम्भ किया। गोपियों ने व्रजेश्वरी तथा माता रोहिणीजी को रंग दिया भली प्रकार। बहुत देर तक चलता रहा यह विनोद। सबने एक साथ यमुना-स्नान किया। वृषभानुजी यहाँ से अपना समूह लेकर विदा हुए। अब नन्दीश्वपुर तथा वृहत्सानुपुर दोनों में समान महोत्सव चलना है। दोनों ही पुरों में गोपों को, गोपियों को बहुत अनुरोध करके नवीन वस्त्राभरण धारण कराये गये। गोप-बालकों का पूरा समुदाय साथ है; क्योंकि महर्षि को अभी विधिवत मण्डप में आकर देवताओं का विसर्जन करना था। यह तो मेरा भगवती लक्ष्मी का सौभाग्य है कि हमको विदा नहीं किया जाता। हमको सदा रहने की अनुमति मिल जाती है। व्रजेश्वर के गोष्ठ में पशु सत्कृत हो रहे हैं। आज तो वन-पशु भी यहाँ स्थान-सत्कार पा गये हैं और ऐसा आवास मिले तो केहरी भी क्यों मोदक न खाय। सबके समीप गोपों ने घृतदीप रखा है। व्रजेश्वर ने गोपों को लेकर भजन-कीर्तन प्रारम्भ कर दिया है। गोपियाँ व्रजेश्वरी के साथ पूरी रात्रि मंगलगान करने वाली हैं। केवल बालक सो गये हैं। बहुत श्रान्त हो गये थे सब। मैया ने शीघ्र भोजन करा दिया। श्रीकृष्णचन्द्र आज स्वत: शीघ्र सो गये। सब गोप-गोपियाँ रात्रि-जागरण में संलग्न हैं। सब शयन भी करते- मुझे सेवा कहाँ मिलनी थी। जहाँ विघ्न की गति ही नहीं, विघ्नेश अपने को वहाँ इनके दर्शन से ही सौभाग्यशाली मानकर तो सन्तुष्ट रहेगा। |
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