नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. गणेश-गोचारण
'कनूँ! तू इनको भी चरायेगा?' बालकों को बहुत आनन्द आया है। 'इनकी पूजा तो हुई नहीं!' तोक ताली बजा रहा है- 'इनको एक-एक फूल ही दे दे।' पक्षी पशुओं की पीठ पर आ बैठे हैं और गगन में उड़ते चल रहे हैं। ऐसा पालक-चारक प्राप्त हो तो कौन इसके सञ्चालन में चलना नहीं चाहेगा। 'वत्स! आज वन-सीमा से ही तुम सबको लौटना है।' महर्षि ने समीप होकर आदेश दिया। श्रीकृष्णचन्द्र सखाओं के साथ गायों के मध्य से आगे बढ़ गये। सम्मुख जाकर मुडे़ और लकुट उठाया। पशुओं ने मुख कर लिया नन्दीश्वरपुर की ओर। वाद्य आगे आ गये। विप्रवर्ग, गोप, सेवक, गोपियाँ सब दो दलों में पथ के दोनों ओर हो गयीं। सबके मध्य से वाद्य, गायों का समूह और उनके पीछे सखाओं से घिरे गोपाल चलते आ रहे हैं। प्रशस्त विस्तृत भूमि में पहुँचते ही मध्य में खडे़ होकर धर्म ने हुंकार की। वाद्य, गोप, विप्रवर्ग, सेवक, गोपियाँ सब शीघ्रतापूर्वक भूमि के चारों ओर किनारे चले गये। केवल श्यामसुन्दर सखाओं के साथ मध्य में खडे़ रहे धर्म के समीप। उत्सव का सबसे आकर्षक अंश स्वत: प्रारम्भ हो गया। गायों और वृषभों ने कान उठाये। वन-पशुओं ने भी हुंकार की। सब पूँछ उठाकर दौड़ने लगे। लेकिन शीघ्र ही वन-पशु अपनी असमर्थता समझकर मध्य में सिमटकर शान्त खडे़ हो गये। केहरी कूद सकते हैं, मृग छलाँगें ले सकते हैं, गवय दौड़ सकते हैं; किंतु गो जाति के समान नृत्य करते दौड़ना तो इनमें-से किसी के वश का नहीं है। शशक पहिले ही पुचकारकर बालकों ने समीप बुला लिए थे। उनके कुचल जाने का भय था। वन-पशुओं के साथ ही बछड़े-बछड़ियाँ भी कूद-फुदककर शान्त खड़ी हो गयीं। वृषभों को भी अन्तत: गायों के सम्मुख आज थकित होना पड़ा। गायें दौड़ती रहीं-दौड़ती रहीं और धर्म स्थिर हुंकार करता रहा। इस उत्सव का अग्रणी-सञ्चालक व्रजेश्वर का विशाल वृषभ धर्म। 'नन्दिनी!' बालक नाम ले-लेकर पुकारने लगे हैं। गायों में अब अधिकांश थकित होकर मन्द पड़ने लगी हैं। 'कामदा!' भद्र उल्लसित पुकार रहा है। 'कृष्णा!' दाऊ का स्वर हर्ष-विह्वल है। |
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