नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. अतुला चाची
इसे लगता होगा कि चन्द्र भी माखन का गोला है। सुना है किसी मुनि से कि यह क्षीरसागर के मथने से निकला है। मेरा लाल ठीक तो कहता है कि यह माखन है। 'मैं तुझे माखन देती हूँ- खूब माखन!' जीजी डर रही हैं, डर मुझे भी लगता है कि यह फिर रोने न लगे। 'मैं इसे खाऊँगा।' यह बहुत हठी है। एक हठ पकड़ ले तो सहज भुलावे में नही आता। 'छि:! इसे कहीं खाया जाता है?' जीजी ने मुख बनाया- 'यह तो तेरी बहू का भाई है, तेरे सखाओं-जैसा।' 'मैं इससे खेलूँगा!' श्याम ने सखाओं-जैसे समझ लिया है। तब इतने सुन्दर इतने चमकते सखा के साथ खेलेगा। अपने दोनों हाथ उठाकर अँगुलियाँ हिलाकर बुला रहा है- 'आ! आ जा!' 'तू बुला! पकड़ इसे! मेरे बुलाने से नहीं आता!' जब कोई मयूर या बिल्ली बुलाने से नहीं आती तो कन्हाई हममें-से ही किसी को उसे पकड़ने को कहता है। यह चन्द्र भी इसके बुलाने से तो आता नहीं है। 'यह नहीं आयेगा।' जीजी ने कहा- 'इसे दूर से ही देखते हैं।' 'आयेगा क्यों नहीं? तू बुला! पकड़ दे तू!' यह तो फिर मचलेगा, रोयेगा, यह जो चाहे, उसे होना चाहिये। 'नहीं होगा' यह सुनना ही इसे सहन नहीं है। 'तू दौड़-पकड़ ला इसे।' गोपियाँ हँसती हैं; किंतु मेरा हृदय धड़कने लगा है। यह फिर रोने लगेगा। लेकिन जीजी को समय पर यु्क्तियाँ सूझ जाती हैं। अन्तत: ये व्रजेश्वरी हैं। हँस पड़ी हैं- 'अच्छा, मैं इसे बुला देती हूँ; किंतु इसे तंग मत करना। तुम यहाँ तनिक बैठो तो सही!' यह प्रसन्न होकर बैठ गया है। चन्द्र से खेलेगा। अभी चन्द्र की ओर देख रहा है। जीजी ने एक थाली में पानी भरा, ऊपर उठाया- 'आ! शशि, इसमें आ जा! मोहन खेलेगा तुझसे!' थाली नीचे धर दी है- 'इसमें आ गया चन्द्र! अब तू इसे ले ले!' कन्हाई सटकर थाली से बैठ गया है दोनों पैर फैलाकर। दोनों कर भूमि में टेके झुककर देख रहा है। बहुत प्रसन्न है- 'चन्द्र थाली में आ तो गया! प्रसन्न होकर ताली बजाता है, सिर हिलाता है। अब एक साथ दोनों हाथ थाली में डाल दिये हैं- पकड़ेगा चन्द्र को।' |
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