नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. अतुला चाची
हँसा नहीं जा सकता। हँसने पर फिर रोने लगेगा। जल वेग से हिलता है तो यह पात्र के बाहर झाँकता है। फिर जल में देखता है; किंतु अब समझ गया कि स्वयं नहीं पकड़ सकेगा। जीजी समीप जाकर झुककर देखती हैं ओर कन्हाई को गोद में उठाकर पुचकारती हैं- 'लाल! देख न, यह चन्द्र तेरे भय से काँपता है। रो रहा है। तू इस बिचारे को जाने दे!' 'रो रहा है!' यह गम्भीर हो गया है। जल की ओर झुककर देखता है। चन्द्र काँप तो रहा है, रोता भी होगा। क्या पता यह इतना सारा पानी इसी का आँसू हो! यह हाथ हिलाने लगा है- 'रो मत! जा!' 'देख! चन्द्र चला गया। कितना प्रसन्न है!' जीजी ऊपर दिखलाती हैं- 'यह तुझे अब आशीर्वाद देता है।' चन्द्र रोये या हँसे- मेरा लाल आज बहुत रोया है। अब यह थक गया है। इसे दूध पीकर सो जाना चाहिये। कन्हाई को खिला देना भी कम कठिन नहीं है। व्रजेश्वरी जीजी ही इसे थोड़ा खिला पाती हैं और वह भी तब जब दाऊ, भद्र, तोक, विशाल सब साथ बैठे हों। 'यह मेरा ग्रास है, यह तेरे बाबा का है, यह बड़ी माँ का है और यह तेरी यह माँ बैठी है, इसका है!' यह किसी प्रकार मुख में ग्रास लेकर इधर-उधर नाचने-घूमने लगता है। पात्र लेकर इसके पास जाना पड़ता है। एक नन्हा-सा ग्रास ले ले तो बड़ी बात- इसे तो इधर-उधर फुदकने की पड़ी होती है। दही-भात सने लाल-लाल ओष्ठ, चिबुक और वक्ष पर, पेट पर भी गिरा लिया है इसने। व्रजराज भोजन ही तब प्रारम्भ करते हैं जब सब बालक आ जाएँ। नीलमणि और भद्र को अंक में लेकर बैठेंगे। दाऊ, अर्जुन, विशाल- सब थाल से सटकर बैठेंगे। सबके मुख में अपने हाथ से ग्रास देकर तब भोजन प्रारम्भ करेंगे; किंतु इन सबों ने एक ग्रास लिया और किलकारी लेते भागे। इन सभी को कूदते, नाचते भोजन करना रुचता है। दो-चार ग्रास ही तो इन्हें लेना रहता है। |
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