नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. अतुला चाची
सभी के प्राण व्याकुल हो उठते हैं। व्रजेश्वर, गोप भी आज जाते हैं आँगन में। यह रोये तो किसी को दूसरा कार्य सूझ ही कैसे सकता है। अत्यन्त सुन्दर खिलौने, सुस्वादु मिठाइयाँ- किंतु कुछ समीप लाओ तो उठाकर फेंक देगा दूर। उस समय केवल व्रजेश्वरी जीजी ही इसे स्पर्श करने का साहस कर सकती हैं। यह रोने लगे तो सब इसके सखा रोने लगते हैं। सब न रोने लगें तो इसे चुप करा लेना सरल है। चाहे जितना रूठा हो, किसी सखा का कर रोते में भी हटा नहीं पाता। दाऊ अपने अनुज के अश्रु अपने छोटे से कर से पोंछने आ जाय तो यह तत्काल चुप हो जाता है। कहीं भद्र या तोक समीप आ जायँ तो उनके मुख को उदास देखते ही हँसने लगेगा। कठिनाई यही है कि इसे रोता देखकर सब रोने लगते हैं। बालक खेल में लगते हैं तो सब भूल जाते हैं। अँधेरा बढ़ने लगा आज और इन सबों का खेल भला कहीं स्वत: समाप्त होने वाला था। मैं बुला-बुलाकर थक गयी। रोहिणी जीजी की भी नहीं सुनी सबने तो व्रजेश्वरी गयीं और श्याम को किसी प्रकार अंक में उठा लायीं। अब यह रूठ गया है। यह खेलना चाहता था अभी और मैया ने सखाओं को उनके घर भेज दिया! अब यह मचल गया, भूमि पर लेटने लगा है। 'लाल! तू यह क्या करता है?' व्रजेश्वरी ने अंक में उठाया- 'सब हँसते हैं, सब कहते हैं कि कनूँ रोता है! यह इतना बड़ा-इतना सुन्दर शशि भी कहता है कि यह रोता है। यह चन्द्र-तेरी बहू का भाई है न! तू इसके सामने रोयेगा तो यह हँसी उड़ायेगा।' हाथ-पैर चलाते, रोते, अंक से उतरने को मचलते नीलमणि की हिचकियाँ कुछ कम हो गयीं। यह चन्द्र को देखने लगा है। नेत्र-मुख अरुण हो गये हैं, कपालों पर अञ्जन मिली अश्रु की बड़ी बूँदें झलमला रही हैं। पलकें भीगी हैं। जीजी ने अञ्चल से इसके चन्द्रमुख को धीरे से पोंछा। |
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