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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता के दो प्रधान पात्र
जिस दिन अर्जुन ने सूर्यास्त से पहले-पहले जयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञा की, उस रात को भगवान् सोये नहीं और चिन्ता करते-करते उन्होंने अपने सारथि दारुक से यहाँ तक कह डाला कि ‘मैं अर्जुन के बिना एक मुहूर्त भी नहीं जी सकता। कल लोग देखेंगे कि मैं सब कौंरवों का विनाश कर दूँगा।’ इसी से पता चलता है कि अर्जुन का भगवान् में कितना प्रेम था और उस प्रेम-लीला में भगवान् कहाँ तक क्या-क्या करने को तुल जाते थे। दूसरे दिन के भयंकर युद्ध में भगवान् ने बड़े ही कौशल से काम किया। थके हुए घोड़ों को युद्ध क्षेत्र में ही भगवान् ने धोया और उनके घावों को साफ किया और अन्त में अपनी माया से सूर्यास्त का अभिनय दिखलाकर अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी करवायी और अर्जुन से कहकर जयद्रथ के सिर को बाणों के द्वारा ऊपर-ही-ऊपर चलाकर जयद्रथ के पिता के गोद में गिरवाया और इस तरह एक ही साथ उसका भी संहार करवा दिया। एक बार कर्ण ने एक बड़ा तीक्ष्ण बाण चलाया; उसकी नोक पर भयानक सर्प बैठा हुआ था। बाण छूटने की देर थी कि भगवान् ने घोड़ों के घुटने टिकाकर रथ के पहियों को धरती में धँसा दिया। रथ नीचा हो गया और बाण निशाने पर न लगकर अर्जुन के मुकुट को गिराकर पार हो गया। इस तरह भगवान् ने अर्जुन की रक्षा की। महाभारत-युद्ध के समाप्त होने पर पाण्डवों के अष्वमेध-यज्ञ में भगवान् ने अर्जुन की बड़ी सहायता की और उसके बाद उन्हें अनुगीता का उपदेश दिया। महाभारत-युद्ध के पश्चात् छत्तीस वर्ष तक पाण्डवों के राज्य करने पर भगवान् ने परमधाम को प्रयाण किया। अर्जुन विलाप करते हुए धर्मराज के पास आये। तदनन्तर पाण्डवों ने भी हिमालय में जाकर महाप्रस्थान किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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