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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
जाति में जन्म की प्रधानता है
इसका तात्पर्य यही है कि तीनों वर्णों को अपने संस्कार कभी नहीं छोड़ने चाहिये-‘सस्काराद् द्विज उच्यते।।’ ‘संस्कार से ही उनमें द्विजत्व जाग्रत् होता है।’ अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार विहित कर्म का पालन करना चाहिये। यही गीता का ‘स्वधर्म’ है। भविष्यपुराण में भी गीता की ही भाँति प्रत्येक वर्ण के स्वाभाविक कर्म बताये गये हैं। वहाँ गीता के अठारहवें अध्याय के श्लोक ही ज्यों-के-त्यों उपलब्ध होते हैं। ‘स्वभाव’ प्रकृति को कहते हैं; प्रकृति जन्म से ही होती है। जन्मसिद्ध कर्म ही वहाँ ‘स्वाभाविक कर्म’ हैं। इतना ही नहीं, आगे चलकर प्रकरण का उपसंहार करते हुए भविष्य पुराण में जन्म और कर्म के समुच्चय को आदर दिया गया है; अर्थात् वर्ण की रक्षा के लिये जन्म और कर्म दोनों आवश्यक हैं। जैसे दैव और पुरुषार्थ-दोनों से ही कार्य-सिद्धि होती है, उसी प्रकार पुरुष जन्म और कर्म दोनों से सिद्धि को प्राप्त होता है। जिस जाति में जन्म हो, उसी के अनुसार कर्म करने से वह उन्नति को प्राप्त हो सकता है। इसी अभिप्राय से ब्रह्मा जी कहते हैं- इदं श्रृणु मयाअख्यातं तर्कपूर्वमिदं वचः। मुझे आशा है कि उपर्युक्त पंक्तियों से गीता की जाति सम्बन्धी आपकी शंका का समाधान हो जाना चाहिये और ठीक समझ में आ जाय तो उपर्युक्त मत को मानिये। मेरा आपका मत बदलने का कोई भी आग्रह नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भविष्य0, ब्राह्मपर्व 45/1-3)
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