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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रथम अध्याय
अर्जुन ने कहा- श्रीकृष्ण! युद्ध के लिये समुपस्थित इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे सारे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं, मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच हो रहा है। गाण्डीव-धनुष मेरे हाथ से गिर रहा है, त्वचा बहुत जल रही है और मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है। इसलिये मैं खड़ा रहने में भी समर्थ नहीं हूँ। इस प्रकार मैं सारे लक्षणों को ही विपरीत देख रहा हूँ। केशव! युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर मैं कोई कल्याण भी नहीं देखता। श्रीकृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य या सुखों को ही। गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से, ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है?। हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुख आदि आकांक्षित हैं, वे ही ये सब गुरुजन, ताऊ-चाचे, पुत्र, पौत्र दादे, मामे, श्वशुर, साले तथा अन्यान्य सम्बन्धी प्राण और धनका परित्याग करके युद्ध में प्रस्तुत हैं। मधुसूदन! इनके द्वारा मारे जाने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो बात ही क्या है। जनार्दन! धृतराष्ट्रपक्षीय लोगों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता (सुख-प्राप्ति) होगी? इन आततायियों को मारने से हमें तो पाप ही लगेगा। अत एव हे माधव! धृतराष्ट्रपक्षीय इन अपने ही बान्धवों को मारना हमारे लिये योग्य नहीं है; क्यों कि अपने ही स्वजन-समुदाय को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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