महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
8.कुन्ती
जन्मजात कवच और कुण्डलों से सुशोभित वही बालक आगे चलकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण के नाम से विख्यात हुआ। बालक के जन्म होते ही सूर्य के वरदान से कुन्ती फिर कुंआरी हो गई। पुत्र हो जाने के बाद अब कुन्ती को लोक निन्दा का डर हुआ। बहुत सोचने विचारने के बाद उसने बच्चे को छोड़ देना ही उचित समझा। बच्चे को एक संदूक में बड़ी सावधानी के साथ बन्द करके उसे गंगा की धारा में बहा दिया। वह पेटी नदी में तैरती हुई आगे निकल गई। बहुत आगे जाकर अधिरथ नाम के एक सारथी की नजर उस पर पड़ी। उसने पेटी निकाली और खोलकर देखा तो उसमें एक सुन्दर बच्चा सोया मिला। अधिरथ निःसंतान था। बालक को पाकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। घर जाकर उसने उसे अपनी स्त्री को दे दिया। सूर्य-पुत्र कर्ण इस तरह एक सारथी के घर पलने लगा। इधर कुन्ती विवाह योग्य हुई। राजा कुन्तीभोज ने उसका स्वयंवर रचा। कुन्ती की अनुपम सुन्दरता और मधुर गुणों का यश दूर तक फैला हुआ था। उससे विवाह करने की इच्छा से देश विदेश के अनेक राजकुमार स्वयंवर में आये। हस्तिनापुर के राजा पाण्डु भी स्वयंवर में शरीक हुए थे। राजकुमारी कुन्ती हाथ में वरमाला लिये मण्डप में आयी तो उसकी निगाह एक राजकुमार पर पड़ी जो अपने तेज से सारे राजकुमारों के तेज को फीका कर रहा था। कुन्ती ने उसी के गले में वरमाला डाल दी। वह राजकुमार भरतश्रेष्ठ महाराज पाण्डु थे। महाराज पाण्डु का कुन्ती से ब्याह हो गया और वह कुन्ती सहित हस्तिनापुर लौट आये। उन दिनों राजवंश में एक से अधिक ब्याह करने की प्रथा प्रचलित थी। ऐसे ब्याह भोग-विलास के लिए नहीं, बल्कि वंश-परम्परा को चालू रखने की इच्छा से किये जाते थे। इसी रिवाज के अनुसार पितामह भीष्म की सलाह पर महाराज पाण्डु ने मद्रराज की कन्या माद्री से भी ब्याह कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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