महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
85.युधिष्ठिर की कामना
आचार्य द्रोण उसका रास्ता रोककर बोले- "भीमसेन, मैं तुम्हारा शत्रु हूँ। मुझे परास्त किए बिना तुम आगे नहीं बढ़ सकोगे। मेरी अनुमति पाकर ही तुम्हारा भाई अर्जुन व्यूह में दाखिल हुआ है। पर तुम्हें मैं जाने की इजाजत नहीं दूंगा।" आचार्य का ख्याल था कि अर्जुन की भाँति भीमसेन भी उनके प्रति आदर प्रकट करेगा। किंतु भीमसेन तो उल्टा गुस्सा हो गया। बोला- "ब्राह्मण श्रेष्ठ! अर्जुन सेना में घुस गया है तो आपसे इजाजत लेकर नहीं, बल्कि अपने पराक्रम के बूते पर व्यूह तोड़कर वह अंदर दाखिल हुआ है। अर्जुन ने आप पर दया की होगी। परंतु आप मुझसे ऐसी आशा न रखिए। मैं आपका शत्रु हूँ। एक समय था, जब आप हमारे आचार्य थे, पिता-समान थे। तब हम आपको पूजते थे लेकिन अब जबकि आपने स्वयं कहा है कि आप हमारे शत्रु हैं तो फिर वही होगा, जो शत्रु के साथ होना चाहिए।" और यह कहते-कहते भी गदा घुमाता हुआ द्रोण पर टूट पड़ा और द्रोण का रथ चूर-चूर कर डाला। द्रोण को दूसरे रथ पर सवार होना पड़ा। भीम ने उसे भी चकनाचूर कर दिया। इस तरह गदा घुमाते हुए चारों ओर के सैनिकों को भी तितर-बितर करके भीमसेन व्यूह के अंदर घुस गया। उस दिन द्रोण के एक-एक करके कई रथ चूर किए गये। भीमसेन कौरव-सेना को चीरता-फाड़ता जा रहा था कि इतने में भोजों ने उसका सामना किया। उनको भीम ने तहस-नहस कर दिया और वह बराबर आगे बढ़ता ही गया। जितने भी सैन्यदल मुकाबले पर आये, मारता-गिरता अंत में भीम उस स्थान पर पहुँच गया जहाँ अर्जुन जयद्रथ की सेना से लड़ रहा था। अर्जुन को सुरक्षित देखते ही भीमसेन ने सिहंनाद किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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