महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
72.नवां दिन
नवें दिन का युद्ध शुरू होने से पहले दुर्योधन भीष्म के पास गया और हमेशा की तरह जली-कटी सुनाकर उनके हृदय पर मानो भालों का प्रहार-सा करने लगा। पितामह को इससे पीड़ा तो बहुत हुई; परन्तु फिर भी उन्होंने धीरज न छोड़ा। वह बोले- "बेटा, तुम्हारी ही खातिर यथाशक्ति प्रयत्न कर रहा हूँ और युद्ध में अपने प्राणों तक की आहुति देने को प्रस्तुत हूँ। फिर भी तुम इस बूढ़े को इस प्रकार जब-तब क्लेश क्यों पहुँचाते हो? उचित और अनुचित का कुछ खयाल किये बिना तुम जो ये कटु वचन कह रहे हो, सो क्यों? मुझे ऐसा लगता है कि विनाश का समय निकट आ जाने पर हरा भी पीला ही दीख पड़ता है। तुम्हारी इन बातों से भी ऐसा ही मालूम देता है। तुम्हें भी हित में अहित का भ्रम हो रहा है और सब उल्टा ही सूझ रहा है। जानबूझकर अपनी ही इच्छा से तुमने जो बैर मोल लिया उसका परिणाम अब तुम्हें भुगतना पड़ रहा है। इस परिस्थिति में धर्म एवं कर्तव्य की दृष्टि से तुम्हारे लिये अब उचित यही है कि पौरूष एवं शौर्य से काम लो और निर्भय होकर युद्ध करो। मैं क्षत्रिय हूँ। शिखंडी के विरुद्ध मुझसे लड़ा नहीं जायेगा। एक स्त्री का वध करना मुझसे नहीं हो सकता। न ही मैं पांडवों की हत्या अपने हाथों से करने पर राजी होऊँगा। बस, ये मेरे दृढ़ विचार हैं। इन दो को छोड़कर और चाहे किसी से भी मुझे लड़ने भेज दो, मैं पीछे नहीं हटूंगा। दूसरे, सारी क्षत्रिय-वीरों से खुले दिल से लड़ने को मैं प्रस्तुत हूँ। तुम्हें भी यही शोभा देता है कि अविचलित होकर क्षत्रियोचित वीरता के साथ युद्ध करो और दूसरों को दोष देना छोड़ो।" भीष्म ने इस प्रकार दुर्योधन को उपदेश दिया और सैन्य की व्यूह-रचना के बारे में आवश्यक सूचनाएं देकर विदा किया। दुर्योधन का क्षुब्ध हृदय भीष्म की बात सुनकर कुछ शांत हुआ। दु:शासन को बुलाकर बोला– "भैया! आज हमें अपनी सारी शक्ति और सैन्यबल युद्ध में लगाना होगा। पितामह भीष्म के आश्वासन पर मुझे पूरा भरोसा है। वह सच्चे हृदय से हमारे लिये लड़ रहे हैं। उनको यदि आपत्ति है तो शिखंडी से लड़ने में है। कहते हैं कि शिखंडी के विरुद्ध लड़ना उनकी प्रतिज्ञा के विरुद्ध होगा। अत: हमें और किसी की चिंता भी नहीं। केवल इसी बात की व्यवस्था खूब सतर्कता से करनी चाहिए कि शिखंडी पितामह के सामने न जाने पावे। गाफिल सिंह का जंगली कुत्ता भी वध कर सकता है।" नवें दिन के युद्ध में अभिमन्यु और अलम्बुष में घोर संग्राम छिड़ गया। धनंजय के पुत्र ने पिता की ही भाँति रण-कौशल का परिचय दिया। अलम्बुष का रथ चूर हो गया। उसे युद्ध-क्षेत्र से जान लेकर भागना पड़ा। दूसरी तरफ सात्यकि अश्वत्थामा से भिड़ा हुआ था। द्रोण की अर्जुन से थोड़ी देर लड़ाई रही। उसके बाद सभी पांडव -वीरों ने पितामह पर एक साथ हमला कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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