महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
60.रुक्मिणी
विदर्भ देश के राजा भीष्मक के पांच पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्री का नाम था रुक्मिणी। रुक्मिणी की सुंदरता अनुपम थी और स्वभाव मृदुल। जब वह बालिका थी तभी श्रीकृष्ण की प्रशंसा लोगों के मुंह से उसने सुनी थी और उन पर अनुरक्त हो गई थी। जैसे-जैसे दिन बीतते गये, मन-ही-मन उसकी यह इच्छा दृढ़ होती गई कि श्रीकृष्ण की वह पत्नी बने और जीवन सफल करे। उसके परिवार के लोगों की भी यही राय थी, पर भीष्मक का बड़ा पुत्र रुक्मी श्रीकृष्ण से बैर रखता था। जब उसे मालूम हुआ कि उसके पिता रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण से करने का विचार कर रहे हैं तो उसने पिता से आग्रह किया कि कृष्ण के बजाय चेदिराज शिशुपाल से रुक्मिणी का विवाह होना ज्यादा ठीक होगा। राजा भीष्मक वृद्ध थे और राजकुमार जिद्दी था। वह हठ पकड़ गया और ऐसा मालूम होने लगा कि शिशुपाल के साथ ही रुक्मिणी का संबंध पक्का हो जायेगा। पर रुक्मिणी श्रीकृष्ण को जी-जान से चाहती थी। वह दैवी स्वभाव की थी। शिशुपाल जैसे राक्षसी स्वभाववाले से उसका मन कैसे मिलता? पर उसे भय भी था कि शायद पिताजी उसकी इच्छा पूरी न कर सकेंगे। हठी भाई का ही उद्देश्य कहीं पूरा न हो जाये, यह सोचकर रुक्मिणी व्याकुल हो उठी। सोच-विचार के बाद उसने निश्चय किया और नारी-सुलभ लज्जा को एक ओर रखकर एक ब्राह्मण पुरोहित के हाथ श्रीकृष्ण के पास प्रेम-संदेश लिख भेजा। पुरोहित से यह प्रार्थना की कि किसी प्रकार श्रीकृष्ण को राजी करके रक्षा का प्रबंध करे। ब्राह्मण पत्र लेकर द्वारिका पहुँचा और श्रीकृष्ण से मिला। रुक्मिणी की व्यथा और प्रार्थना द्वारिकाधीश को सुनाने के बाद उसने वह पत्र श्रीकृष्ण को दिया। पत्र में लिखा था- "मैं तो आपको ही अपना पति मान चुकी हूँ। मेरा हृदय आप ही की संपत्ति हो गई है। जो वस्तु आपकी है, उसी की चोरी करने के लिये राजा शिशुपाल घात लगाये बैठा है। इससे पहले कि आपकी वस्तु शिशुपाल के हाथ पड़ जाये, आप यहाँ आयें और आकर उसको बचा लें। लेकिन मुझे प्राप्त करना सरल नहीं है। शिशुपाल और जरासंध की सेनाओं को मार भगाने के बाद ही आप मुझे प्राप्त कर सकेंगे। शौर्य दिखलाकर, वीरोचित रीति से आप मुझे ले जायें। बड़े भैया ने निश्चय कर लिया है कि वह शिशुपाल के साथ मेरा ब्याह करेंगे। विवाह के दिन प्रथा के अनुसार मुझे पूजा के लिये गौरी मंदिर जाना होगा। साथ में सहेलियां भी होंगी। वह अवसर मुझे बचाने का हो सकता है। तभी आप मुझे ले जा सकेंगे। यदि आप यह न करेंगे तो मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूंगी, जिससे कम-से-कम अगले जन्म में तो आपको पा सकूं।" द्वारकाधीश ने पत्र पढ़ा। एक क्षण कुछ सोचा और रथ मंगाकर विदर्भ देश को रवाना हो गये। विदर्भ देश की राजधानी कुंडिनपुर की शोभा अनूठी हो रही थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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