महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
51.मामा विपक्ष में
यह सुनकर मद्रराज सन्न रह गये। शल्य को असमंजस में पड़े देखकर दुर्योधन बोला- "आपके लिये जैसे पांडव वैसे ही हम। हम दोनों का आपसे बराबर नाता है। सो आप अपनी सेना लेकर मेरी तरफ से ही क्यों नहीं लड़ते?" दुर्योधन के उपकार से शल्य कुछ दबे-से महसूस कर रहे थे। उन्होंने विवश होकर कहा- "अच्छी बात है, ऐसा ही होगा।" शल्य पर दुर्योधन के आदर-सत्कार का कुछ ऐसा असर हुआ कि उन्होंने पुत्रों के समान प्यार करने योग्य भानजों-पांडवों-को छोड़ दिया और दुर्योधन के पक्ष में रहकर युद्ध करने का वचन दे दिया। मद्रराज ने दुर्योधन को वचन तो दे दिया, पर युधिष्ठिर से बिना मिले लौट जाना उन्हें उचित नहीं लगा। वह दुर्योधन से बोले- "राजन, एक बात है। मैं। तुम्हें वचन तो दे ही चुका हूं, पर जाने से पहले युधिष्ठिर से भी मिल लेना जरूरी समझता हूँ। अत: अभी तो मुझे विदा दो।" "जरूर मिलिये, पर वहाँ से शीघ्र ही लौट आइये। ऐसा न हो कि वहाँ भानजों को देखकर जो वचन दे चुके हैं, उसे आप भूल जायें।" दुर्योधन ने कहा। "नहीं भाई, जो कह चुका वह व्यर्थ नहीं होगा। तुम निश्चिंत होकर अपने नगर लौट जाओ।" यह कहकर मद्रराज उपप्लव्य की ओर रवाना हुए। उपप्लव्य में राजा शल्य का खूब स्वागत किया गया। मामा को आया देखकर नकुल और सहदेव के आनंद की तो सीमा न रही। पांडवों ने अपने सब कष्टों का हाल मामा को कह सुनाया। अब भावी युद्ध की चर्चा छिड़ी तो शल्य ने युधिष्ठिर को बताया कि किस प्रकार दुर्योधन ने धोखा देकर उनको अपने पक्ष में कर लिया है। युधिष्ठिर ने मन में सोचा कि अपने निकट के रिश्तेदार समझकर उनकी ओर से हम लापरवाह रहे और इनकी कोई खबर नहीं ली, इसी का परिणाम है। पर उन्होंने अपना दु:ख प्रकट नहीं किया। बोले- "मामा जी! दुर्योधन के स्वागत-सत्कार से प्रसन्न होकर आपने जो वचन दिया उसे तो पूरा करना ही उचित होगा। पर मैं आपसे एक बात अवश्य पूछना चाहता हूँ। आप युद्ध-कुशलता में वासुदेव के समान हैं। मौका आने पर निश्चय ही महाबली कर्ण आपको अपना सारथी बनाकर अर्जुन का वध करने का प्रयत्न करेगा। मैं यह जानना चाहता हूँ कि उस समय आप अर्जुन की मृत्यु का कारण बनेंगे या अर्जुन की रक्षा का प्रयत्न करेंगे? मैं यह पूछ कर आपको असमंजस में नहीं डालना चाहता था, पर फिर भी पूछने को मन हो गया।" मद्रराज ने कहा- "बेटा युधिष्ठिर, मैं धोखे में आकर दुर्योधन को वचन दे बैठा। इसलिये युद्ध तो मुझे उसकी ओर से करना होगा। पर एक बात बताये देता हूँ वह यह कि कर्ण मुझे सारथी बनायेगा तो मेरे कारण उसका तेज नष्ट होगा और अर्जुन के प्राणों की रक्षा होगी। किसी प्रकार का भय न करो। जुए के खेल में फंसकर द्रौपदी और तुम लोगों को जो कष्ट झेलने पड़े उनका अब अंत आया समझो। तुम्हारा अब कल्याण ही है। विधि की गति को कोई नहीं टाल सकता। इस समय की मेरी भूल को क्षमा कर देना।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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