नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
37. कुबेर-बाल-क्रीड़ा
बालक ही तो हैं सब। भागेंगे, इधर-से-उधर पत्तों में छिपेंगे अथवा मैया के ही चारों ओर घूमने लगेंगे। नहीं आवेंगे तो सुनेंगे नहीं और आवेंगे तो सब एक साथ गोद में आना चाहेंगे। तोक, अंशु, देवप्रस्थ, तेजस्वी, भद्र सब श्याम के साथ व्रजेश्वरी के अंक में, कन्धों पर चढ़ेंगे और इन वात्सल्यमयी के अंक में स्थान का अभाव कहाँ होता है। गोपियाँ हँसेगी इतने बालकों को उठाये आती इनको देखकर और माता रोहिणी मिल गयीं तो उनके कन्धे, क्रोड़ी भी भर जायगी। मेरे दोनों पुत्र इन नन्द-पौरि पर दिव्य सौ वर्ष रहे। मैं तो अब यहाँ आने का अवसर पा सका हूँ। अब कुछ दिन- हम देवताओं की कुछ घटिकाएँ मैं यहाँ व्यतीत कर लूँ तो अलका में मेरी अनुपस्थिति से कोई अनर्थ नहीं होने वाला है। मेरे पुत्रों ने पिता को भी पुनीत होने का अवसर दिया उन्हें भगवद्भक्ति भव्य प्रसाद प्राप्त हुआ तो मुझे भी इन श्रीनन्दनन्दन के शैशव की झाँकी का साहब हो गया है। मेरा पुत्र-स्नेह सार्थक हुआ। सफल हुआ मेरा पितृत्व। सुतों के सौभाग्य से मैं सनाथ हुआ। कृष्णचन्द्र किसी को अपूर्ण नहीं अपनाते। ये चिदानन्द अपनाते हैं तो अपने से पूर्णत: अभिन्न कर लेते हैं। इसी प्रकार इनसे एकत्व प्राप्त संत-भगवतद्भक्त किसी पर कृपा करते हैं तो उसमें कोई कार्पण्य नहीं रखते। देवर्षि की दया ने पुत्रों को परमपावन किया तो मुझे भी पवित्र कर दिया। मुझे तो पुत्रों से भी अधिक प्रिय हो गये हैं उनके पृथ्वी पर पड़े ये उच्छिन्न मूल वृक्ष देह! ये इतने हरित, इतने सुशोभित- कोई सीधे खडे़ तरु यह सौभाग्य तो नहीं प्राप्त कर सकते कि उनकी शाखाओं पर शिशु नन्दनन्दन सखाओं के साथ चढ़ने-कूदने, पत्तों में छिपने की क्रीड़ा करें। मेरे पुत्रों का वृक्ष-जीवन धन्य और धन्य-धन्य! परम धन्य उनका वृक्ष-जीवन का त्याग भी! |
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