नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
33. शारदा-उपालम्भ
आजकल उपालम्भ बहुत आने लगे हैं गोपियों के ब्रजेश्वरी के समीप। श्यामसुन्दर धूम करने लगे हैं। मैं सबके अन्तर में प्रतिभा और मुख में वाक की अधिदेवता ही नहीं जानूँगी कि इन उपालम्भों के मूल में कितनी ललक है इन सौन्दर्य-सिन्धु का श्रीमुख देखने की। ये जिनके गृह न पधारें दो-चार दिन, उसकी व्यथा क्या मैं देखती नहीं हूँ। वह दधि-माखन पड़ा सड़ता है जिस ये स्पर्श करने नहीं पहुँचते। मैं सेविका हूँ। मुझे शान्त, मौन साक्षी रहना है। मेरा सौभाग्य छिन जायगा यदि यहाँ किसी को पता लग जाय कि मैं मानवी नहीं हूँ। सेविका होने पर तो मैया मुझे स्नेह-सम्मानजनक देती रहती हैं। मैं साक्षी केवल साक्षी हूँ अपने इन इन्दीवर-सुन्दर अग्रज की इन लीलाओं की। मैं साक्षी हूँ गोपियों की और उनके हृदय की भी। 'श्याम आज मेरे गृह आता सखाओं के साथ!' सबेरे उठते ही तो सबकी साध जगती है। सब गौरी, गणपति तथा सुरों के साथ मेरी भी मनौती करने लगती हैं। कोई कहीं दधि-दूप छिपाती हैं, कोई दधि-मंथन करके कहीं माखन रखती हैं। छिपाती भी हैं और यह भी देखती हैं कि नन्दनन्दन देख ले। इतना ही दुराव कि अदृश्य या अलभ्य न बन जाय। स्वयं कहीं छिपकर बैठती हैं। कोई केवल देखना चाहती है- 'वह आ जाय और सखाओं के साथ प्रसन्न होकर भरपेट खाय! भले मेरे सब भाण्ड फोड़ जाय!' कोई चाहती है- 'कितना भला लगता है जब अँगूठा दिखाकर मटकता है। आज खूब खीझूँगी और वह हँसेगा, मुख बनावेगा। मैं चिल्लाऊँगी तो सब ताली बजाकर कूदेंगे।' कोई भागते चपल-चरण देखना चाहती है और सोच-सोचकर ही हँस रही हैं- 'कितना धृष्ट है!' आँख दिखाओ तो मुख पर माखन का लोंदा मार देता है- 'रुष्ट मत हो! तू भी खा' मुख में दूध या छाछ भरकर सीधे मुख पर कुल्ला कर देगा- 'इतना गरम मत बन! शीतल हो जा!' कोई चाहती है कि पकड़ ले और तब ये नीलसुन्दर कर छुड़ाने को उलझें उससे। कोई पकड़कर सचमुच मैया के समीप लाना चाहती है- 'ब्रजेश्वरी के समीप उपालम्भ देने पहुँचो तो यह कितना सीधा, भोला, सभीत बन जाता है और मैया की दृष्टि बचाकर नेत्र भी तरेरता है! इसे पकड़कर ही ले जाऊँ तो क्या करेगा? कैसा लगेगा अत्यन्त सभीत? क्या बहाना बनावेगा?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मैहर
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