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विषय |
सात्विक |
राजस |
तामस
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उपासना’’’’’’आहार'' |
देवताओं का पूजन (17/4) जो पदार्थ आयु, बुद्धि, बल, नीरोगता, सुख और प्रीति बढ़ाने वाले तथा रसयुक्त, स्निग्ध, स्थिर रहने वाले और रुचि के अनुकूल हों। गेहूँ, चावल, मँूग, गव्यपदार्थ, फल शाकादि (17/8) |
यक्ष-राक्षसों का पूजन (17/4) बहुत कड़वे, बहुत खट्टे, बहुत गरम, बहुत तीखे, रूखे, दाहकारी, दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करने वाले पदार्थ। अफीम, इमली, लाल मिर्च, भूँजे, राई आदि। (17/9) |
भूत-प्रेतादि का पूजन (17/4) अधप के, रहरहित, दुर्गन्ध युक्त, बासी, जूठे, अपवित्र पदार्थ। मांस, जूठन, प्याज, अचार, आसव आदि। (17/10)
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यज्ञ’’’’’’’ |
जो विधिसंगत हो तथा कर्तव्य और निष्काम बुद्धि से किया जाय (17/11) |
जो विधिसंगत हो, पर फल की इच्छा से या दम्भ से किया जाय। (17/12) |
जो विधिहीन, अन्नदानरहित, मन्त्रहीन, दक्षिणारहित और श्रद्धारहित हो। (17/13)
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तप’’’’’’’’’ |
श्रद्धा और निष्काम भाव से किये जाने वाले त्रिविध[1]1 तप।(17/17) |
सत्कार, मान या पूजा पाने के लिये दम्भ से किये जाने वाले अनिश्चित और अक्षिण फलवाले त्रिविध तप। (17/18) |
मूर्खता के दुराग्रह से शरीर, मन, वाणी को सताकर दूसरों का अनष्टि करने के लिये किये जाने वाले त्रिविध तप।(17/19)
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दान’’’’’’’’’ |
जिस को जिस समय जिस वस्तु की यथार्थत: धर्मयुक्त आवश्यकता हो उसको उस समय वह वस्तु कर्तव्य बुद्धि से बदला पाने की इच्छा न रखकर देना(17/20) |
बदला पाने के लिये किसी लौकिक, पारलौकिक फल की आशा से (नाम, बड़ाई, उपाधि, व्यापार-वृद्धि, सम्मान, स्वर्ग आदि के लिये) और मन में कष्ट पाकर देना। (17/21) |
दान लेने वाले को इस समय इस वस्तु की धर्मयुक्त यथार्थ आवश्यकता है या नहीं, इस बात का कुछ भी विचार किये बिना मनमाने तौर पर अथवा आदर न करके और अपमान करके देना। (17/22)
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त्याग’’’’’’’’’’’ |
नियत कर्म को कर्तव्य-बुद्धि से करना और उसमें आसक्ति तथा फलेच्छा का त्याग कर देना। (18/9) |
कर्म को दुःख रूप (झंझट) समझकर शारीरिक क्लेश के भय से उसे स्वरूप से त्याग देना। (18/8) |
नियत कर्म का मोह से त्याग कर देना। (18/7)
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