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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीतोक्त समग्र ब्रह्म या पुरुषोत्तम
सर्वत्र अपने को ही परम तत्व बतलाया है और अन्त में खुले शब्दों में यह आज्ञा दी है कि ‘अर्जुन! तू सब धर्मों को छोड़कर केवल एक मेरी ही शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक न कर [1]।’ परंतु विचार यह करना है कि अर्जुन के सामने मनुष्य रूप में भासने वाले दिव्य मंगल विग्रह भगवान् उतने ही मानव रूप में अपनी शरण ग्रहण करने को कहते हैं या अपने को कुछ और भी बतलाते हैं। यदि यह मानें कि उतने ही मानवरूप के लिये भगवान् का कथन है तब तो भगवान् के इस कथन का क्या तात्पर्य है कि ‘मानुषी तनु’ धारण किये हुए मेरे भूत-महेश्वर रूप के परम भाव को मूढ़लोग नहीं जानते [2]! इससे यह सिद्ध होता है कि उनका भूत-महेश्वर रूप परम भाव इस [3] ‘मानुषी तनु’ से ही प्रकट नहीं है; वह पृथक् है और उसे देखने के लिये ‘मानुषी तनु’ से परे दृष्टि को ले जाना पड़ेगा। साथ ही इस मानुषी तनुको तो भगवान् ने अपनी विभूति बतलायी है-‘वृष्णीनां वासुदेवोअस्मि’ (10/37) और यदि यह मान लें कि ब्रह्म के लिये ही भगवान् का यह कथन है तो ‘मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ’ (गीता 14/27)1 इस कथन की व्यर्थता सिद्ध होती है, अतएव यह देखना है कि भगवान् श्रीकृष्ण वास्तव में क्या हैं? आनन्द की बात है कि महान् भक्त अर्जुन की कृपा से हमें भगवान् का वह रहस्य उन्हीं के श्रीमुख की दिव्य वाणी से उपलब्ध हो जाता है। अर्जुन-सा बछड़ा न होता तो कभी हमें यह भगवत्-रहस्य रूपी गीतामृत न मिलता। भगवान् जहाँ भी कुछ रहस्य बतलाना चाहते हैं, वहीं अर्जुन के प्रेम को कारण बतलाते हैं। अब हमें यह देखना है वह भगवत् रहस्य क्या है, जिससे हम भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप को जान सकें। इसके लिये सरसरी निगाह से हमें गीता के प्रारम्भ से ही विचार करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 18/66)1सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।। सम्पूर्ण धर्मां को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमं त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
- ↑ (गीता 9/11)2अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।। मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिये मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं।
- ↑ योगमायासमावृत3योगमाया’ भगवान् की स्वरूपा शक्ति है, इसी को गीता में ‘आत्ममाया’ भी कहा है।
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