भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 1
वेदव्यास की दृष्टि में मनुष्य ही ज्ञान और विज्ञान का मध्यविन्दु है-“मैं तुमसे यह रहस्य बतलाता हूँ कि इस लोक में मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठ कुछ नहीं है”-
‘यह लोक कर्मभूमि है’।[2] ‘मनुष्य का लक्षण कर्म है’।[3] ‘जैसा कर्म वैसा लाभ, यही शास्त्रों का निचोड़ है’।[4] ‘जो स्वयं अपनी आंख से लोक का दर्शन करता है उसी को सचमुच मैं सर्वदर्शी मानता हूँ।'[5] ‘वेद का रहस्य सत्य है‚ सत्य का रहस्य आत्मसंयम है‚ आत्मसंयम से ही मोक्ष होता है, यही सब उपदेशों का सार है’।[6] ‘जो ‘एकमेवाद्वितीयम्’ तत्त्व है, उसे समझने का प्रयत्न क्यों नहीं करते? समुद्र के पार जाने के लिए जैसे नाव आवश्यक है ऐसे ही अकेला सत्य स्वर्ग का सोपान है’।[7] ‘मनुष्य का ध्रुव अंश उसका सत्य है। हे युधिष्ठिर, इस मनुष्य लोक में ही जो श्रेयस्कर है, उसे ही कल्याण का श्रेष्ठ रूप कहना चाहिए’।[8]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शांति 180।12
- ↑ वन. 261।35
- ↑ आश्व. 43।20
- ↑ शांति 279।20
- ↑ उद्योग 43।36
- ↑ शांति 299।13
- ↑ उद्योग. 33।46
- ↑ वन. 183।188
- ↑ आदि. 1।15
- ↑ आदि. 1।17, 19
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