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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 70-150
इस अवसर पर अर्जुन ने भी कुछ मिली-जुली बात कही। उसका आशय था कि शान्ति की बात करना और यदि दुर्योधन न माने तो युद्ध ही सही। उत्तर में कृष्ण ने इस प्रसंग को स्फुट करते हुए कहा, “खेत को तैयार करना किसान का काम है, किन्तु वृष्टि दैव के अधीन है। कितना भी पुरुषार्थ किया जाय, वृष्टि के बिना दैव कृषि को सुखा डालता है। दैव और मानुष के मिलने से ही सफलता होती है। मैं वह करूंगा, जो पुरुषार्थ से सम्भव है, पर दैव को बान्धकर कर्म कराना मेरे वश में नहीं मैं कर्म और वाणी से भरसक प्रयत्न करूंगा, पर दुर्योधन का जैसा स्वभाव है उससे मुझे शान्ति की आशा नहीं।” नकुल और सहदेव ने भी अपने विचार प्रकट किये। द्रौपदी का सन्देश फिर द्रौपदी के मन में विचारों का जो बांध रुका हुआ था वह इस अवसर पर फूट पड़ा। उसने कहा, युधिष्ठिर सन्धि चाहते हैं, वह ठीक है, पर यदि दुर्योधन राज्य देने के लिए तैयार न हो तो “हे कृष्ण! सन्धि कभी मत करना। जो साम और दाम नहीं समझते, उन पर कृपा कैसी? उन पर तो महादण्ड ही चलाना चाहिए। हे कृष्ण! पुनरुक्ति होते हुए भी मैं फिर कहूंगी, मेरे समान पृथ्वी में और दुखिनी कौन है? द्रुपद की पुत्री, महात्मा पाण्डु की पुत्रवधू और पाण्डवों की पटरानी होकर भी मैं केश खींचकर सभा में लाई गई। पांडुपुत्र बैठे देखते रहे और तुम भी कृष्ण जीवित थे, तब यह अनर्थ हुआ! मैं सभा के बीच उन पापियों की दासी बनाई गई। जिस समय पाण्डव निश्चेष्ट होकर देखते रहे, उस समय हे गोविन्द! मैंने अपने मन की शक्ति से तुम्हें पुकारा था। उस समय मेरे ससुर राजा धृतराष्ट्र ने कृपा कर मुझे वरदान देते हुए पाण्डवों को अदास किया और उससे छूटकर हम सबको वन में जाना पड़ा। हे कृष्ण! हमारे ये दुःख क्या तुमसे छिपे हैं? भीमसेन के बल को धिक्कार है, अर्जुन के धनुष को धिक्कार है, यदि क्षणभर दुर्योधन जीवित रहता है। यदि मेरे ऊपर तुम्हारी कुछ कृपा हो तो, हे कृष्ण! अपना सारा क्रोध कौरवों पर उड़ेल देना।” इतना कहकर द्रौपदी ने अपने लम्बे केशों को बाएं हाथ में लेकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहा, “हे कृष्ण! जब शत्रु सन्धि की बात कहें तो मेरे इन केशों को मत भूल जाना। आज महाबाहु भीम को धर्म दिखाई पड़ता है। उनकी बात सुनकर मेरा हृदय फटा जाता है।” इतना कहकर आंसुओं से रुंधे कण्ठ से द्रौपदी ढाड़ मारकर रोने लगी। कृष्ण ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, “हे द्रौपदी! धैर्य रखो। शीघ्र ही तुम भी भरतवंश की स्त्रियों को रोते देखोगी। जिनके भाई-बंधु, पति और हितू मारे जायेंगे, ऐसी वे स्त्रियां, जिन पर तुम्हारा क्रोध है, विलाप करेंगी। यदि काल से पके हुए कौरव मेरी बात नहीं मानेंगे तो रणभूमि में गिरे हुए उन्हें सियार और कुत्ते नोचेंगे। हे द्रौपदी! हिमालय चाहे विचलित हो जाये, धरती चाहे फट जाये, आकाश चाहे गिर पड़े, पर मेरी बात झूठ न होगी। हे कृष्णे! अपने आंसुओं को रोको। मेरी सत्य प्रतिज्ञा है कि तुम्हारे पति अपने शत्रुओं को मारकर शीघ्र राज्य प्राप्त करेंगे।”[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 80।20-49
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