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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 58-65
धृतराष्ट्र ने उलट-पुलट कर बातों को फिर मोड़ना चाहा। कभी वह दुर्योधन को समझाता और कभी संजय से पूछता कि कृष्ण ने क्या कहा? संजय ने बताया कि एकांत में जहाँ केवल कृष्ण, अर्जुन, द्रौपदी और सत्यभामा थीं, अंतःपुर के उस भाग में मुझे बुलाकर कृष्ण ने कहा, “हे संजय! मेरी ओर से धृतराष्ट्र से कहना कि जो यज्ञादि पुण्य कर्म करना चाहो, कर लो, ब्राह्मणों को दक्षिणा दे लो और स्त्री-पुत्रों के साथ सुख मना लो, क्योंकि तुम्हारे ऊपर एक भारी विपत्ति आने वाली है। जब कृष्ण ने दूर से मुझे गोविन्द कहकर पुकारा था, वह ऋण मैं आज भी भूला नहीं हूँ। अर्जुन ने मेरे भरोसे युद्ध छेड़ा है। देव, असुर, मनुष्यों में कोई मुझे नहीं दीखता, जो अर्जुन को जीत सके।” इस तरह की बात का दुर्योधन पर क्या प्रभाव होना था। उसने कहा, “देवता मेरे पक्ष में हैं। मैं जब मंत्रों से बुलाता हूं, अग्नि आते हैं जहाँ मैं जाता हूं, वायु और जल अनुकूलता दिखाते हैं। मैं पानी का बहाव रोक देता हूँ तो सेना पार उतर जाती है। देवों और असुरों के कार्यों का प्रवर्त्तक मैं ही हूँ।”[1] कर्ण ने भी सुर-में-सुर मिलाते हुए कहा कि मैंने अपने गुरु को अपनी सेवा और बल से प्रसन्न करके जो अस्त्र प्राप्त किया, उसके द्वारा में क्षण में पुत्र-पौत्रों के साथ समस्त पाण्डवों को मार डालूंगा। कर्ण की डींग भीष्म से न सही गयी, उन्होंने कुछ खरी बात कही, पर दुर्योधन ने छेका कि यह आपकी क्या आदत है, जो सदा पाण्डवों की ही जय चाहते हैं। बीच में कुछ तत्तो-थम्बो करने के लिए विदुर ने एक कहानी सुनाई। एक बहेलिया था। उसने दो पक्षियों को फंसा लिया। वे एक जैसे बली थे। जाल को लेकर आकाश में उड़ गये। यह देखकर बहेलिया भी उनके पीछे दौड़ा। इस दृश्य को कोई आश्रमवासी मुनि देख रहा था। उसने चिड़ीमार से पूछा कि ये पक्षी तो आकाश में जा रहे हैं और तुम पैदल दौड़ते हो। चिड़ीमार ने कहा, “आप नहीं समझते। अभी तो ये दोनों मिलकर मेरा जाल लिये जा रहे हैं, पर जब ये झगड़ेंगे तो धरती पर आ गिरेंगे।” जिनकी मृत्यु आ पहुँची थी, ऐसे वे दोनों पक्षी लड़ पड़े और जैसा व्याध ने सोचा था, वही हुआ।” कहानी सुनकर विदुर ने समझाया कि वे सम्बन्धी भी, जो आपस में झगड़ते हैं, उन पक्षियों की तरह शत्रु के वश में हो जाते हैं। उचित तो यह है कि अपने बन्धुओं के साथ मिलकर उठना-बैठना, भोजन और बातचीत करनी चाहिए। जो ऐसा करते हैं, वे लपट की तरह धधकते हैं; पर जो आपस में विरोध करते हैं वे राख की तरह धुंधुआते हैं। विदुर ने अपना एक अनुभव और सुनाया, “एक बार मैं किरातों के साथ गन्धमादन पर्वत पर गया था। वहाँ मैंने क्या देखा कि एक झरने के पास छत्ते से टपका हुआ शहद घड़े में भरे हुए की तरह जम गया था और मक्खियां भी उसके पास नहीं थीं। जो मेरे साथी मन्त्रसाधक ब्राह्मण थे, उन्होंने बताया कि यह अमृत है। इसे चखकर मनुष्य अमर बन जाता है। अन्धे को दृष्टि मिल जाती है और बुड्ढा जवान हो जाता है। यह सुनकर किरात उसे लेने के लिए झपटे। उन्होंने शहद तो देखा, पर सामने का खड्ड उन्हें नहीं दिखाई दिया। ऐसे ही हे धृतराष्ट्र! तुम्हारे पुत्र की गति है।[2] मेरी तो राय है कि तुम दुर्योधन को बुलाकर अपनी गोद में बैठा लो। उसे तुमने वश में कर लिया तो युद्ध कदापि न होगा, क्योंकि दो हाथों से ताली बजती है, एक से नहीं।” धृतराष्ट्र को मानो एक सहारा और मिला। उसने फिर कुछ घिसे-पिटे वाक्यों से दुर्योधन को समझाने का प्रयत्न किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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