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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 43
सत्ये स्थितो यस्तु स वेद वेद्यम्।।[1] “मैं तो उसी को वेद का चतुर आख्याता (अध्यापक) मानता हूं, जो स्वयं छिन्नसंशय हो गया हो। मौन तप से कोई मुनि बनता है, जंगल में बसने मात्र से नहीं। जो अक्षर तत्त्व को यथावत जानता है, वही श्रेष्ठ मुनि है। जब ब्राह्मण सत्य में प्रतिष्ठित होता है तभी ब्रह्म का दर्शन कर पाता है। चारों वेदों का क्रम ये यही मत है।” छान्दोग्य उपनिषद में भी सनत्कुमार ने नारद को सब कुछ बताकर अन्त में सत्य का उपदेश किया है।[2] सदाचार और सत्य दर्शन इन पर ही यहाँ विशेष आग्रह किया गया है। कैसा भी बढ़ा-चढ़ा तप हो, वह नीतिमय जीवन के बिना रीता है, और सच्चे धर्म के बिना वेद का ज्ञान भी कोरा बुद्धि का व्यायाम ही है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, शोक, मान, असूया, स्पृहा, विवित्सा (संग्रहवृत्ति), कृपा (दैन्य), घृणा ये बारह महादोष हैं। जैसे शिकारी मृगों को ढूंढता है। ऐसे ही इनमें से हर एक मनुष्य की टोह में रहकर उसे अपने चंगुल में फंसाता है। इसके विपरीत ब्राह्मणवृत्ति मनुष्य के लिए ये बारह महाव्रत हैं- धर्म, सत्य, दम, तप, यज्ञ, दान, श्रुत, धैर्य, अमात्सर्य, ह्री, तितिक्षा और अनसूया। जो इन बारह गुणों से शून्य है, अथवा दम, त्याग और अप्रमाद ये तीनों या इनमें से दो या एक भी जिसके पास नहीं है, उसका अपना आत्मा जैसे कुछ बना ही नहीं। दम, त्याग और अप्रमाद इनमें ही अमृत कहीं रखा हुआ है। मनीषी ब्राह्मण कहते हैं कि सत्य के तीन मुख हैं। इन तीन गुणों का विशेष उल्लेख यवन देशीय भागवत हिलियोदोर के विदिशास्थित गरुड़ध्वज लेख में भी पाया गया है। उसे अवश्य भागवतों ने महाभारत के इसी प्रकरण से लिया था। पंचरात्र भागवतों के पास धार्मिक चर्या तो अपनी थी; किन्तु दर्शन उन्होंने सांख्यवादियों से लिया। जैसा पहले कहा जा चुका है, सनत्सुजात का दृष्टिकोण प्राचीन सांख्ययोग की परम्परा से आया हुआ था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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